रविवार, 20 दिसंबर 2020

♥️I Love You Varsha & My Little Angels...♥️

आईना सामने रखोगे तो याद आऊँगा
अपनी ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊँगा

भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊँगा

एक दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊँगा

याद आऊँगा उदासी की जो रुत आयेगी
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊँगा

मेरे साहब...💐

फ़िल्म विरासत के अनिल कपूर की तरह उनके भी लम्बे बाल और मूछे थीं। तब मैं उनका बड़ा आलोचक हुआ करता था। सोचता था कि ये तो मेरे गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि गुरु अथवा संतजन तो सीधे और सरल जिंदगी जीते हैं, उनकी रहनी गहनी, वेशभूषा तो साधारण होती है। परिवार के सदस्यों के कहने पर, जिद करने पर उनके दर्शन करने हर साल दामाखेड़ा चले जाया करता था। लेकिन उन पर बिल्कुल भी श्रद्धा नहीं थी। तब सिर्फ वेषभूषा, बाहरी आवरण से ही उन्हें जानने समझने की चेष्टा करता था। तब वो मेरे लिए एक सामान्य व्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं थे।

बरसों बीत गए। समय के साथ खुद की खोज शुरू हुई, गुरु की खोज शुरू हुई, सद्गुरु की खोज शुरू हुई। आसपास ऐसा कोई नजर नहीं आया जिनके चरणों में माथा रखकर अपने प्रश्नों के उत्तर पा सकूँ, जिनकी छाया में जीवन गुजार सकूँ। लेकिन खोज जारी रही, प्यास बढ़ती रही। 

एक दिन शाम को अंधेरे कमरे में ध्यान मग्न बैठा था, कोई आकाशवाणी हुई, किसी ने मुझे मेरे नाम से पुकारा, ये उनकी ही आवाज थी। मेरी चेतना को किसी ने झकझोर दिया, किसी अज्ञात सत्ता ने मेरे अस्तित्व को छू लिया। मैं हतप्रभ होकर, आनंदित होकर रोने लगा। आंसू थामें नहीं थमते थे, होंठ कांपने लगे। असीम की एक झलक मात्र से जीवन का जागरण हो गया। तब मैं जान चुका था कि अनिल कपूर के जैसे बाल और मूछे रखने वाले वो कोई साधारण मानव नहीं हैं, बल्कि वही परमात्मा हैं।

साहब को जीना...💐

ग्रन्थ-सत्संग में जाता तो गायक के सुर, तबला और मंजीरे की धुन, टीकाकार के भावार्थ पर ध्यान जाया करता। मंच में आसीन लोगों और उपस्थित संतों की बुराई खोजने में लग जाता। उनके जीवन को देखे बिना ही यह तय कर लेता की अमुक व्यक्ति को साहब के बारे में कुछ नहीं मालूम। मुझे ताज्जुब हुआ करता कि जो बातें "करने" योग्य हैं उन्हें सिर्फ "गाया" जा रहा है। मुझे लगता कि साहब की एक एक वाणी बड़ी गहरी है जिन्हें सिर्फ सत्संग की "फॉरमैलिटी" निभाने के लिए दुहराया जा रहा है, गाया जा रहा है। और मैं गुस्से से बड़बड़ाते मीनमेख निकालते घर लौट आता।

बहुत मंत्रणा करने के उपरांत मुझे अहसास हुआ कि ऐसा रिएक्शन मेरे खुद के अहं का प्रतीक है। कहीं न कहीं मैं साहब को समझने के अपने तरीके को उनके नजरिए से श्रेष्ठ मानता था। मैं साहब की साखियों को, उनकी वाणियों को गाना नहीं चाहता था बल्कि जीना चाहता था।

उन्हीं दिनों एक युवा संत मिले। बातों ही बातों में उनसे मेरे दिल के तार जुड़ गए। मैंने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने बहुत सरल उपाय बताया। उन्होंने कहा कि तुम साहब की वाणियों को जीना चाहते हो तो सत्संग में बैठो, लेकिन किसी की कुछ मत सुनो। चुपचाप बैठकर सत्संग की समाप्ति तक सत्यनाम का स्मरण करो। उनकी युक्ति काम कर गई। घंटा दो घंटा सत्संग स्थल में बैठकर सत्यनाम का स्मरण करने लगा। धीरे धीरे मुझे सुमिरण में आनंद आने लगा। 

तब से जहां भी सत्संग में जाता हूँ एकांत जगह खोजकर बैठ जाता हूँ और उस युवा संत की युक्ति के माध्यम से साहब को जीने की कोशिश करता हूँ।

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ध्यान ...💐

#ध्यान ...
कोई कहता है चार कमल दल, कोई आठ, तो कोई कहता है सहस्त्र कमल दल होते हैं। कोई कहता है सांप की आकृति में कुण्डलिनी का जागरण होता है। तो कुछ लोग कहते हैं कि भूत प्रेत नजर आते हैं, निरंजन नाम का विशालकाय दानव नजर आता है। रास्ता बताने वाले खुद तो कन्फ्यूज होते हैं और दूसरों को भी कन्फ्यूज करते हैं। 

अरे भाई, साहब का ध्यान करोगे तो सिर्फ साहब की सुनोगे, साहब को देखोगे, साहब से मिलोगे। परमात्मा की खोज करोगे तो परमात्मा ही तो मिलेंगे न। इसमें सांप, बिच्छू, भूत प्रेत, निरंजन भला कहाँ से आ गया। उल्टा पुल्टा और भयानक किस्से कहानी सुनाकर क्यों साधक को डरा रहे हो। 

साहब का मार्ग तो एकदम सहज, सरल और सीधा है। यह पथ तो साहब की दिव्य रोशनी से प्रकाशित है, उनके नाम से सुवासित है, उनके संगीत से गुंजायमान है। यह पथ तो मनभावन हरितिमा आवरण लिए सुगंधित फूलों की पगडंडियों से होकर गुजरता है। साहब का ध्यान तो साहब को जीना सिखाता है, साहब का परिचय देता है। यह मार्ग डरावना तो बिल्कुल भी नहीं है बल्कि आनंदित करने वाला है, परमानंद प्रदायक है। साहब के ध्यान में जरा गहरे उतरकर तो देखो, मजा आएगा, जीना सीख जाओगे, साहब को नस नस में जी उठोगे।

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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

हृदय के अनकहे भाव...💐

हृदय में थोड़े भाव हैं और नयनों में आंसू। हृदय के भाव चाहकर किसी से नहीं कह पाता क्योंकि उन भावों को कहने के लिए शब्द नहीं मिलते, और रो इसलिए नहीं पाता क्योंकि आँसुओ को बहने के लिए कोई कंधा नहीं मिलता। मेरे भाव और आंसू अंदर ही अंदर हृदय और नयनों में धधकते रहते हैं, अकेले होने पर फुट पड़ते हैं, सिसक पड़ता हूँ।

जिस रास्ते मैं निकल पड़ा हूँ, कहते हैं उस पथ का कोई भौतिक साथी या हमसफर नहीं है। एक-एककर लोग पीछे छूटते जाते हैं, सिर्फ एक साहब ही हैं जो साथ होते हैं, जिनकी मौजूदगी का आभास नितप्रति होते रहता है। साहब का साथ निश्चय ही आनंदित कर देने वाला, हतप्रभ कर देने वाला होता है। उनकी दिव्य और मधुर ध्वनि तले जिंदगी अनजान डगर पर निकल पड़ी है। साहब के साथ चलना, उन्हें निभाना बहुत कठिन है, बहुत कठिन। वो मिलकर भी कभी नहीं मिले।

सफर आनंददायक होने के बावजूद राह में बेपनाह दर्द है, न बुझने वाली प्यास है, अजीब सी पीड़ा है। ये दर्द, ये प्यास, ये पीड़ा बड़ी मीठी भी है। उनसे मिलने की यही तड़प इस सफर को जिंदा रखती है, उन तक पहुंचने की चरम इक्छा इस सफर को जिंदा रखती है। काश ये तलाश जारी रहे, ये खोज जारी रहे, ये सफर जारी रहे, इसका कोई अंत न हो। उनसे मिलने की तड़प और प्यास में ही ये शरीर प्राण त्याग दे।

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मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

जीवन में आप न मिलते तो ...💐

जीवन में आप न मिलते तो न जाने किस रास्ते भटक जाते, भीड़ में कहीं खो जाते, अपने आप से ही बिछड़ जाते। आपका लखाया नाम ही है, आपका दिया पान परवाना और प्रसाद ही है, आपका चरणामृत ही है, जिसके माध्यम से जीवन को सही दिशा मिली। आपके चरणों में शीश झुकाते ही यह मानव जीवन मानो जाग उठा, यह जीवन सार्थक हुआ।

मेरी खोज को अगर आप सही दिशा न देते, मुझ पर अपनी अनंत कृपा न बरसाते, मुझे न अपनाते तो जीवन यूं ही बेमतलब गुजर जाता। जानता हूँ जीवन के इस उबड़ खाबड़ और ढलान भरी पगडंडियों में आपने मेरी उंगली पकड़ रखी है, हमसफर की तरह साथ जीते हैं, मुझे संभालते और संवारते हैं, मेरे साथ परछाई की तरह मुझमें ही कहीं रहते हैं। तभी तो आपके नाम की खुशबू से जीवन का कोना कोना महक रहा है।

अपनी अनुभूतियों के खूबसूरत लम्हों से मेरा संसार सजाने, मुझे मुझसे ही मिलाने, अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराने, इस मानव तन में परमात्म तत्व का साक्षात्कार कराने के लिए आपका शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया साहब। जीवन की अंतिम घड़ी भी आपके चरणों में ही गुजरे। आपके चरणों में बंदगी, सप्रेम साहेब बंदगी ...💐

मौन की मधुरिमा...💐

भावनाओं को बयान करने के लिए उचित शब्दों का चयन, सोच विचारकर कहना जरूरी नहीं होता। सीधे, सहज, सरल और सपाट बोली में कहे गए मनोभाव ज्यादा प्रभावशाली होते हैं। कभी कभी तो मौन की बोली उससे भी कहीं अधिक श्रेयस्कर और सीधे हृदय तक पहुचने वाली होती है।

संतजन कहते हैं कि ध्यान की पहली सीढ़ी मौन है। मौन की मधुरिमा में ही सुमिरन और ध्यान के फूल खिलते और पल्लवित होते हैं। ऐसा कहा भी जाता है कि जिसने मौन की महत्ता समझ ली, आचारचर्या में उतार ली, उसने जीवन की आधी समस्याओं को जीत लिया। मौन वह अस्त्र है जो प्रतिकूल परिस्थिति रूपी शत्रु को भी परास्त कर दे।

मौन होने का अर्थ चुप अथवा खामोश होना नहीं है। मेरी नजर में साहब की वाणी अनुसार मौन का अर्थ है - "तन थिर, मन थिर, वचन थिर, सुरति निरति थिर होय।"

ऐसा मौन हम सबके जीवन में अंकुरित हो। ऐसे मौन की दिव्य सुगंध से हमारी दिनचर्या का पल पल आह्लादित हो, पुलकित हो, सुवासित हो।

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रविवार, 15 नवंबर 2020

साधना और जीवन...💐

किस तरह अपना जीवन सार्थक करें? धनी सोचता है कि निर्धन सुखी है क्योंकि उसे अपना धन बचाने की चिंता नहीं है। निर्धन अपने अल्पधन के अभाव को दूर करने के लिये संघर्ष करता हैं। जिनके पास धन है उनके पास रोग भी है जो उनकी निद्रा का हरण कर जाता हैं। निर्धन स्वस्थ है पर उसे भी पेट पालने के लिए चिंताओं से भरी नींद नसीब होती है। निर्धन सोचता है कि वह धन कहां से लाये तो धनी उसे खर्च करने के मार्ग ढूंढता है। हर कोई सोचता है कि क्या करें क्या न करें?

संतजन, सिद्धपुरूष लोग परमात्मा तथा संसार को अनंत कहकर चुप हो जाते हैं और वही लोग इस संसार को आनंद से जी पाते हैं। प्रश्न यह है कि जीवन में आनंद कैसे प्राप्त किया जाये? इसका उत्तर यह है कि सुख या आनंद प्राप्त करने के भाव को ही त्याग दिया जाये। निष्काम कर्म ही इसका श्रेष्ठ उपाय है। पाने की इच्छा कभी सुख नहीं देती। कोई वस्तु पाने का जब मोह मन में आये तब यह अनुभव करें कि उसके बिना भी हम सुखी हैं। किसी से कोई वस्तु पाकर प्रसन्नता अनुभव करने की बजाय किसी को कुछ देकर अपने हृदय में अनुभव करें कि हमने अच्छा काम किया। 

इस संसार में पेट किसी का नहीं भरा। अभी खाना खाओ फिर थोड़ी देर बाद भूख लग आती है। दिन में अनेक बार खाने पर भी अगले दिन पेट खाली लगता है। संतजन, साधकगण रोटी को भूख शांत करने के लिये नहीं वरन देह को चलाने वाली दवा की तरह खाते हैं। काश जीवन किसी साधक की तरह गुुुजरता ...!

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

आश्रम और संतजन ...💐

मैं कई बार सेवा करने की इक्छा लेकर आश्रम जाता हूँ। सोचता हूँ कि आज सभी संतो के लिए भोजन प्रसाद बनाऊंगा, सारे बर्तन साफ करूँगा, आश्रम की सफाई कर लूंगा, शारीरिक कष्टों से गुजर रहे संतों को डॉक्टर के पास ले जाऊंगा। उन्हें आराम करने को कहूंगा। कम से कम साल में एक बार उन्हें क्षमता अनुसार द्रव्य भेंट करूँगा।

लेकिन ऐसा कभी हो ही नहीं सका। उनकी सेवा कभी कर ही नहीं सका। बल्कि जब भी आश्रम जाता हूँ संतजनों से अपनी सेवा करवा लेता हूँ। वृद्धावस्था में भी वो खुद भूख सहकर मेरे लिए भोजन प्रसाद बनाते हैं, कंपकपाते हाथों से मेरे जूठे उठाते हैं, मेरे द्वारा फैलाए कचरे को साफ करते हैं। अपने दुख छिपाकर मुझसे मेरी खैरियत पूछते हैं, मुझे आश्रम में किसी चीज की कमी न हो इसका ध्यान रखते हैं।

वहाँ जाकर, उनके कठोर जीवन को करीब से झांकने पर अहसास होता है उन्हें लोग ऐसे ही संत नहीं कहते, ऐसे ही उन्हें संतों की उपमा नहीं देते। उनका जीवन वाकई हम जैसे सामान्य और भैतिकवादी लोगों की सेवा में न्यौछावर है, वो जनकल्याण में सतत निशदिन लगे रहते हैं और शायद उनकी ही वजह से वर्तमान में "सेवा" शब्द की सार्थकता है।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

उनमुनि अवस्था...💐

कहते हैं जो संतजन होते हैं वो सुख, दुख, माया, मोह, तृष्णा, अहंकार, आशा, निराशा, अंधकार और प्रकाश आदि के बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं। उनका जीवन एक निश्चित ऊँचाई पर पहुंचकर स्थिर हो जाता है। वो सतत साहब के नाम स्मरण की साधना और तप के बल पर तन, मन और इन्द्रियों से अपनी आत्मा को अप्रभावित बना लेते हैं। उनका जीवन हर परिस्थिति में एकरस परमात्मा के इर्दगिर्द, अनहद के संगीत तले, उनमुनि अवस्था में प्रतिक्षण गुंजित होकर चलता रहता है। जिसे सामान्यतः मुक्ति की अवस्था कहा जाता है, मोक्ष की अवस्था कहा जाता है। 

इस अवस्था में सामान्य मानव में परमात्मा तत्व का अवतरण, मिलन होता है तथा उसका जीवन दिव्यता की अलौकिक महक से सुवासित हो उठता है। यह परम् चेतना की अवस्था होती है, एक अनकहे गहरे बोध की अवस्था होती है, अनूठी और दिव्य जागृति की अवस्था होती है। वह परमात्मा को नितप्रति, प्रतिक्षण अपने आसपास साए की तरह महसूस करता है। वह अपना जीवन परमात्मा के चरणों में अर्पित कर देता है। 

धन्य हैं ऐसे लोग जिनके जीवन में परमात्मा का अवतरण हुआ, जिन्हें साहब का परिचय प्राप्त हुआ, उनका बोध हुआ। जो साहब की राह में आगे बढ़ गए, जो साहब की राह में आगे बढ़ रहे हैं, और जो साहब की राह में आगे बढ़ने की चाह रखते हैं, उनकी राहों में सादर प्रेम पुष्प अर्पित...💐💐💐

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प्रेम पत्र ... साहब के नाम 💐💐💐

वर्ष 2008 संस्मरण...💐

गंभीर पेटदर्द और अनिद्रा से परेशान था। मेकाहारा अस्पताल के मनोरोग चिकित्सक डॉ. मनोज की देखरेख में भर्ती था। लगता था जिंदगी के दिन बहुत थोड़े बचे हैं। दर्द भरे जीवन से ऊब चुका था और अब जीवन का साथ छोड़ मृत्यु को सहर्ष स्वीकार करना चाहता था। आँसू सुख चुके थे, हृदय पथरा सा गया था, गला सुख रहा था। उस पल बस एक ही इक्छा बार बार हो रही थी कि बस अंतिम बार साहब के दर्शन कर लूं, उन्हें कह दूं कि मुझे इस दर्दभरे संसार के बंधनों को छुड़ाकर अपने लोक ले जाएं और मेरे जाने के बाद अपने करकमलों से मेरी चौका कर देवें।

डॉ. मनोज के चरणों मे विनती कर दो घण्टे के लिए मेकाहारा अस्पताल से छुट्टी ली और दर्द से कराहते ऑटो में बैठकर साहब के आवास प्रकाश कुंज कटोरा तालाब पहुंच गया। वहां किसी संत ने मुझे बताया कि साहब अभी नहीं हैं, उनसे मुकालात नहीं हो पाएगी। लेकिन उन्होंने मुझे साहब का प्रसाद और चरणामृत दिया, उनके चरणों में माथा टेककर वापिस अस्पताल लौट आया। चरणामृत और प्रसाद पाकर मुझे गहरी तृप्ति की अनुभूति हुई, लगा जैसे साहब ही मुझे मिल गए हों।

रात को रोते हुए अस्पताल की बिस्तर पर साहब के नाम प्रेम पत्र लिखा। जिसमें मन के भाव, उनके लिए तड़प, बेचैनी लिखी। लिखा कि जब जीवन की शाम हो तो उनके चरणों में हो। उन्हें लिखते लिखते कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

मैं बारह दिन अस्पताल में रहा, रोज साहब को प्रेम पत्र लिखता रहा। उन्हें लिखते लिखते अपनी पीड़ा भूल जाता, साहब में लीन हो जाया करता। समय के साथ मेरी बीमारी ठीक होने लगा, लेकिन अफसोस कि वो प्रेम पत्र कभी साहब तक पहुंच नहीं पाए। हाँ, पर आज फेसबुक के माध्यम से साहब को प्रेम पत्र लिखता हूँ, और वो मेरे प्यार भरे खत, मेरी तड़प, बेचैनी पढ़ते हैं।

बुधवार, 16 सितंबर 2020

मृत्यु का भय...💐

मुझे अजब सा विराग हो जाता है, जब मैं मृत्यु देखता हूँ, किसी को मृत्यु के करीब देखता हूँ। सत्यों में से सर्वाधिक अटल सत्य मृत्यु है, देह का त्याग है। निश्चित ही यदि किसी ने जन्म लिया है तो उसकी मृत्यु भी तय है, निश्चित है। मृत्यु क्या है? क्यों है? मृत्यु के बाद क्या होता है? इनका उत्तर प्राचीनकाल से ही रहस्य है। हर कोई इस रहस्य को जानने को उत्सुक रहता है।

मृत्यु को लेकर सदा से मन में डर का भाव रहा है। मृत्यु हमें सर्वाधिक डराती है। ना जाने क्यों पर वो कल्पना जब मैं मृत्यु शैय्या पर होऊंगा और मेरे प्राण देह का साथ छोड़ रहे होंगे। धीरे धीरे सांसे धीमी हो रही होंगी, नाड़ीयां थम रही होगी। उस समय ये भौतिक शरीर भयंकर पीड़ा महसूस कर रहा होगा। उस अथाह पीड़ा का भय ही मृत्यु से भयभीत करता है। आदिकाल से अब तक हम सब मृत्यु से सर्वाधिक भयभीत रहते हैं, मानो ये देह छोड़ना कोई भयंकर कष्टजनक हो।

दूसरी तरफ देहधारी होना सुखकर लगता है। देहधारी होना सुखकर इसलिए लगता है क्योंकि दुनिया का हर भोग, हर विषय, हर रस हम देह के इन्द्रियों से ही भोग पाते हैं। रसों, विषयों और भोगों में आनंद महसूस करते हैं और इस शरीर को अधिक से अधिक भोगना चाहते हैं।

मृत्यु सुंदर हो या असुन्दर। जो भी हो, मृत्यु सत्य है, शाश्वत सत्य, अटल सत्य।  इसके बिना तो जीवन का कोई अस्तित्व ही नही। जानता हूँ अनेकों प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे, फिर भी अपनी मृत्यु को समय से पहले देख लेना चाहता हूँ, जान लेना चाहता हूँ कि मेरी मृत्यु कैसे होगी?

रविवार, 10 मई 2020

कुछ विराम लूँ...💐

जी चाहता है कुछ विराम लूँ। विचार जो बेलों की तरह यहाँ वहाँ फैले हैं उन्हें छंटाई कर लूँ, बुहार लूं, समेट लूँ, अपने को जरा संभाल लूं। एकांत के सरोवर में थोड़ी और गहरी डुबकी लगा लूं, खुद को करीब से और निहार लूं, खुद को खुद से जोड़ लूँ। 

चाहतों के बादल बरसने लगे हैं, कामनाओं की झड़ी लगी हुई है। इन्हें सही दिशा दे लूँ, सुरति को संवार लूँ, नाम के चादर में अस्तित्व ढंक लूँ, समा लूँ। जी चाहता है विराम लूँ।

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मुक्ति का पंथ...💐

गले में कंठी के साथ साथ छुपाकर दिखाई न देने वाला ताबीज बांह में भी धारण किया हुआ है। रोज संध्यापाठ तो करता ही है, साथ ही साथ मन ही मन सबसे छुपाकर महामृत्युंजय का जाप भी करता है। दिवाली के दिन पहले साहब की आरती गाता है फिर महालक्ष्मी का पाठ भी करता है। अच्छी बात है कि कम से कम तेरी उपासना पद्धति में हिंसा तो नहीं, वरना कई तो कंठी धारण करने के बाद भी मासूम जानवरों की बलि देते हैं।

जब मुसीबतें आती है तो आदमी क्या क्या नहीं करता। बेशक प्राण बचाने के लिए सबकुछ करो। लेकिन पहले अपने गुरु, अपने सद्गुरु को तो टटोल लो, उनके चरणामृत, उनके प्रसाद पर तो दृढ़ विश्वास करके देख लो। 

अक्सर लोग भौतिक विकास के लिए अन्य उपासना पद्धति की ओर आकृष्ट होते हैं, और मुक्ति के लिए कबीरपंथ का सहारा लेते हैं।

शुक्रवार, 8 मई 2020

वो लम्हें जो बीत चुके...💐

जिंदगी आज बहुत आगे बढ़ चली है, और तुम कहीं बहुत पीछे छूट चुकी हो। मेरी आवाज तुम तक अब नहीं पहुँच सकती, जानता हूँ। मगर दिल तुम्हें ढूंढता है, कहीं तलाशता है। लगता है कुछ और कह लूँ, कुछ और सुन लूँ, थोड़ा वक्त तुम्हारे साथ और बिता लूँ। लम्हें जो अब वापस लौटकर नहीं आएंगे, वक्त भी अपने को नहीं दुहराएगा। फिर भी दिल अक्सर तुमसे मिलने की जिद किया करता है।

उन बीते लम्हों को काश दुबारा जी पाता, आत्मा की अनकही बातें और कह पाता, कुछ तुम्हारी सुन पाता। लेकिन हमारे रिश्ते की डोर अब टूट चुकी है, तुम किसी और बंधन में बंध चुकी हो और मैं किसी और के गठबंधन में। 

यूँ तो जीने के लिए थोड़े प्यार भरी नजरें ही काफी हैं, लेकिन मुझे तो सारा आकाश मिला, फिर गीले शिकवे भला क्यों और किससे करूँ? जीवन मे सबकुछ तो हासिल नहीं होता, जो मिला बहुत मिला.... कहते हुए उसके नयन रो पड़े।

गुरुवार, 7 मई 2020

प्यार की खुमारी...💐

वो मेरे प्यार की अतृप्त खुमारी थी, उसकी चाहत मुझे जिंदा रखती थी। तब नासमझी थी, बचपना था, युवावस्था की दहलीज पर खड़ा था। उसे बचपन से चाहा, शिद्दत से चाहा। परमात्मा ने मेरी दुआ कबूल की और उसे मेरी झोली में डाल दिया।

लड़कपन के प्यार भरे लम्हों की कसक से आज भी दिल लबरेज है। प्यार का पहला चुम्बन गांव की किसी बाड़ी में झाड़ियों और सब्जी के पौधों के झुरमुट के बीच शुरू हुआ। तब गाँव के लोगों की नजरें चुराकर लव लेटर एक दूसरे की ओर फेंका करते। लहराती हुई जिंदगी सरपट दौड़ पड़ी। 

प्यार की पहली बूंदों की बारिश, मेरे गालों पर उसके होंठों की पहली छुअन याद आता है। सुनहरे धूप, रिमझिम बारिश, जाड़े के मौसम की गुनगुनी धूप और चाँदनी रातें याद आती हैं, मेरा बचपन का प्यार याद आता है।

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रजनीगंधा...💐

जामुनी रंग, बोलती आंखें, माथे पर दमकती छोटी सी बिंदी, नदी की चंचल लहरों की सी उसकी बोली अच्छी लगती थी। गाँव की सोंधी मिट्टी से महकती पुरवाई उसकी ओढ़नी उड़ाया करती थी। उसे देख दिल धड़क उठता, जमाना भूल जाता, अपने वजूद को उसी से न जाने कब जोड़ बैठा। वो मेरे लिए अमूल्य थी, मुझे सबसे प्यारी थी। उसी के उधेड़बुन में दिन की शुरुआत होती और उसी के ख्यालों में रातें अंगड़ाई लेती।

पहले प्यार की वो बातें, यादें और मुलाकातें जीवन के अंतरतम से लिपटी हुई हैं। हजारों गुलाबी प्रेम पत्रों में उकेरे हुए कोमल भावनाएं और जज्बात अपने युवापन की याद दिलाते हैं। उसके साथ शायद कई जन्मों का रिश्ता है, युगों का बंधन है, तभी तो वो नहीं बिसरती। 

तब आँगन में मोगरे के फूल लगाए थे, जो अब सुख गए हैं, उसपे फूल नहीं लगते। लेकिन अब एक दूसरे गमले में रजनीगंधा लगा रखा है। जिसकी भीनी गंध से अब भी हृदय प्रफुल्लित और उल्लासित रहता है। जानता हूँ वो अब करीब नहीं, आसपास नहीं, लेकिन उसकी महक रजनीगंधा बनकर मेरे जीवन को सदा महकाती रहती है...💐💐💐

शनिवार, 2 मई 2020

सहज सुमिरण...💐

दस बरस पूर्व एक तरफ तो मन बड़ा बेचैन था, कुछ समझ नहीं आता था। अकथनीय, असहनीय पीड़ा से जीवन आबाद था। तो दूसरी तरफ अनजाने, अनसुलझे रहस्यों से आत्मा उत्प्लावित और आह्लादित था। मन में रहस्यमयी प्रश्नों की लड़ियाँ थीं। तब साहब से मार्ग पूछने बलौदाबाजार से रायपुर की ओर निकल पड़ा था।

डॉ.Bhanupratap Goswami साहब की बंदगी करते हुए रो पड़ा था। पूरी बातचीत तो अब ठीक से याद नहीं है लेकिन उन्होंने मुझे देखते ही कहा था "सहज हो जाओ जी, सुमिरण ध्यान सहज होना चाहिए।" साथ ही उन्होंने पंचम साहब से मेरे लिए पास की दवाई दुकान से दवाई लाने को कहा था। साहब ने तब मुझे serlift नाम की दवा दी थी, और कहा था रोज एक गोली खाना।

साहब की बंदगी करके घर लौट आया। लेकिन आज तक "सहज सुमिरण-ध्यान" का मतलब नहीं समझ सका, सहज रहने का अर्थ समझ नहीं सका। उनकी एक वाणी का पालन आज तक नहीं कर सका। आज दस बरस के बाद भी उनके वचनों को जीने की कोशिश जारी है।

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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

सच बताओ कौन हो 💐

सच बताओ कौन हो? न जाने कब से मेरे जेहन में समाए हो, मेरे विचारों से गुंथे हुए हो। मेरी हर बात, हर अहसास की खबर रखते हो। अपनी छुअन से मेरी धड़कन के तार झंकृत करते हो। एक भी पल मुझे अकेले नहीं छोड़ते, मेरे साथ साथ चलते हो साए की तरह, हमराज की तरह।

सच बताओ कौन हो? मुझे दिनरात जगाए रखते हो, अपने मोहपाश के बांधे रखते हो। रिश्ते की एक महीन डोर जोड़े रखते हो, सुरति के तार से निशदिन मुझसे जुड़े ही रहते हो। जब दूर होना चाहूँ, तो भी नहीं होने देते। ये रिश्ता तोड़ देना चाहूँ तो भी नहीं टूटने देते।

सच बताओ कौन हो? प्रतिपल मेरा पीछा क्यों करते हो? कौन हो जो मुझे आवाज देकर पुकारते हो, जगाते और सुलाते हो, रहस्यों की बात बताते हो, अगम की कहानी कहते हो, निर्गुण और सगुण के पार की अनुभव कराते हो, हर राज से पर्दा उठाते हो। सच बताओ कौन हो?

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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

साहब को जीना... मुश्किल होता है...💐

साहब का ज्ञान हो जाना, उनके विमल स्वरूप से परिचय हो जाना आसान है। लेकिन उस ज्ञान के साथ जीना, उस ज्ञान को धारण किए हुए जीना, साहब के साथ जीना, उनमें क्षण क्षण लवलीन रहना बहुत मुश्किल होता है....बहुत ही मुश्किल।

कोई विरला ही जीवन भर साहब को हृदय में बसाए रखता है। वही अपने प्रियतम, अपने परमात्मा से मिलन की प्रतीक्षा में ताउम्र साँसे गिनता है। वही सत्यलोक जाने के सपने लिए साहब को निशदिन पुकारता है। कोई विरला ही उनकी याद में पल पल जीता है और पल पल मरता है।

पनिहारिन की भाँति साहब को सिर पर लेकर पग पग चलना बहुत मुश्किल होता है... बहुत ही मुश्किल।

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पान परवाना, चरणामृत और महाप्रसाद...💐

पान परवाने का मोल तब समझा जब जिंदगी तबाह होने के कगार पर थी, साँसे उखड़ने को थी। जीवन के उस मुहाने पर सबकुछ दांव पर लगा था, एक एक पल युगों के समान महसूस हो रहा था। तब हँसों ने साहब का पान परवाना दिया, चरणामृत और महाप्रसाद दिया।

पान परवाने, चरणामृत के अलावा महाप्रसाद के रूप में चांवल के कुछ दाने और आम के आचार का एक टुकड़ा मिला था। महाप्रसाद के वो थोड़े से दाने आज भी संभाल रखे हैं, जो जीवन के विपरीत परिस्थितियों में सम्बल बनते हैं।

जब कठिन परिस्थितियां हो, कोई मार्ग न सूझता हो, कोई सहारा न मिलता हो तो महाप्रसाद का एक दाना लेकर नस नस में उतार लिया करता हूँ, उन्हें जी लिया करता हूँ।

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मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

साहब मिलेंगे, जरूर मिलेंगे...💐

कई लोगों की जिज्ञासा होती है, जानना चाहते हैं। पूछते हैं कि ये सुमिरण-ध्यान क्या होता है? सुमिरण-ध्यान कैसे करें? मेरे कई परिचित और रिश्तेदार अक्सर यही पूछते हुए उमर गुजार रहे हैं, लेकिन करते कुछ नहीं। कुछ बताओ तो कान लगाकर सुनते जरूर हैं, लेकिन दो तीन दिनों में ही हलाकान हो जाते हैं, मैदान छोड़ जाते हैं।

दरअसल रुचि और लगन का अभाव, समर्पण का अभाव हमें साहब से दूर कर देता है। सुमिरण-ध्यान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा आलस्य है, जिसकी वजह से हम कल-परसों पर टालते रहते हैं। जिस पल शरीर को यंत्र बना लिए उसी पल साहब नजरों के सामने होते हैं, जिस पल हमारा मन निर्मल आईना बन जाता है, उसी पल उनकी छवि नजर आती है।

जुनून... उनको तलाशने की
जुनून...उनसे सुरति की डोर जोड़ने की
जुनून... जीवन उनके चरणों में रख देने की
जुनून... सांस का कतरा कतरा अर्पित कर देने की
जुनून... अपना जीवन अपने ही हाथों बार लेने की।

वो मिलेंगे, जरूर मिलेंगे... पागलपन तो छा जाने दो।

💐💐💐

प्रार्थना...💐

प्रार्थना...। क्या आपने कभी सोचा है कि प्रार्थना का क्या मतलब होता है? क्या मंदिर मे पूजा करना और मन्नत माँगना ही प्रार्थना है? प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ माँगना होता है, याचना करना होता है। तो क्या परमात्मा से झोली फैलाकर माँगना ही प्रार्थना है?

अगर माँगना ही प्रार्थना है तो यह एक तरह से शिकायत हो गई की हमें उन्होंने अभी तक कुछ नहीं दिया जो वो दे सकते हैं, या जो दूसरों को प्राप्त है वह हमें अभी तक अप्राप्त है।

प्रार्थना का सच्चा मतलब तो धन्यवाद का भाव है, अहोभाव का भाव है। अहोभाव में जीना ही प्रार्थना है। जितना मिला वह जरूरत से ज्यादा मिला। जो भी मिला वह स्वीकार है, जो नही मिला वह भी स्वीकार है। क्या ऐसे स्वीकार भाव से जीने में कोई दुविधा, परेशानी व्यक्ति को उसके जीवन मे हो सकती है भला??

धन्यवाद साहब सांसे देने के लिए, धन्यवाद जीवन देने के लिए, धन्यवाद इस जगत के मीठे नमकीन स्वाद चखाने के लिए, धन्यवाद चरणों में जगह देने के लिए...

💐💐💐

सोमवार, 30 मार्च 2020

परमात्मा की खोज...💐

एक वक्त था जब परमात्मा की खोज की बड़ी व्याकुलता थी। जो भी व्यक्ति मुझे संत नजर आता, साधु नजर आता, दाढ़ी वाला नजर आता उनके पैर पकड़ लेता। बस में, सड़क में, घर मे, मेले में, रास्ते में, खेत में, मंदिर, मस्जिद और शमशान में, जो जहाँ मिला उसे वहीं पकड़ लिया करता। कहता कि मुझे परमात्मा से मिला दो, परमात्मा दिखा दो। सभी ने अपने अपने तरीकों से परमात्मा से, साहब से मिलने के उपाय बताए। लेकिन मुझे उनका कोई भी उपाय जँचता नहीं था।

कुछ समय खोज के दौरान अमृत कलश ग्रंथ हाथ लगी। फिर मेरी खोज मिट गई, प्यास बुझ गई। एक ही सार वाक्य पकड़ लिया कि "नाम स्मरण में शरीर को यंत्र बना लेना है, सबकुछ झोक देना है" फिर एक यात्रा शुरू हुई, सुमिरण और ध्यान की यात्रा...और साहब की ओर दृढ़ता से कदम बढ़ा दिए।

फिर एक वक्त ऐसा भी आया जब मार्ग में ढेरों बाधाएं आईं, अड़चनें आई। व्यक्त और अव्यक्त प्रश्नों, अपरिचित और अनअपेक्षित उनझनों की लड़ी सी थी। कुछ समझ नहीं आता कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है, कौन कर रहा है, कोई तो है जो मुझे देखता है, मुझसे बातें करता है। ध्वनियों और दृश्यों की शृंखला से नींद चैन हराम हो गई। अब जीवन की डोर किसी अनजानी सत्ता के हाथ में थी।

जिनसे भी अबूझ प्रश्नों के बारे में पूछता वो मुझे उल्टा उलझा दिया करता। तब तय किया कि जब मैंने साहब को गुरु माना, साहब को परमात्मा माना तो क्यों न उन्हीं से पूछूँ? क्यों किसी और के पैर पकडूं? लेकिन साहब से मिलने के लिए, उनसे प्रश्न करने के लिए यूँ मुंह उठाकर नहीं जा सकते। हिम्मत चाहिए, हौसला चाहिए, जीवन उनके चरणों में अर्पित करने का साहस चाहिए।

क्या मैं साहब से मिला? उनसे क्या बात हुई? आगे क्या हुआ जानना चाहेंगे???

संतों से भौतिक सुख की अपेक्षा...💐

परिवार की मुख्य महिला सदस्य घुटनों के दर्द से परेशान रहती थी। बहुत इलाज करवाया, हजारों रुपए दवा दारू में खर्च हो गए, लेकिन घुटने के दर्द से कोई आराम नहीं मिला। यह परिवार अपने गुरु पर बड़ी श्रद्धा रखता था। सो उन्होंने अपने गुरुजी को घर आने का निवेदन किया।

निर्धारित तिथि अनुसार घर में गुरुजी का आगमन हुआ, साथ में गुरुजी के सहयोगी संतों का भी समागम हुआ। गुरुजी की आरती के बाद मुख्य महिला सदस्य ने अपनी आप बीती बताई और अपने घुटनों के दर्द के निवारण का उपाय पूछा।

गुरुजी ने सिर पकड़ते हुए, ततेरते हुए कहा- "कृपया मुझसे एक लाख ले लो लेकिन मेरे घुटनों के दर्द का उपाय कर दो, मैं खुद भी घुटनों के दर्द से परेशान हूँ।" यह सुनकर मुख्य महिला सदस्य और परिजन सन्न रह गए। उन्होंने गुरुजी से ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी। वो लोग गुरुजी को जल्दी विदा करने के उपायों पर लग गए...

😢😢😢

रविवार, 22 मार्च 2020

मैं साहब की सुहागन...💐

मेरे करीब के लोग कहते हैं दिनभर साहेब-साहेब करते रहते हो, और इस बात को लेकर वे अक्सर मुझे ताने कसते रहते हैं। अनेकों रिश्ते साहब के कारण ही टूट गए, बचपन के मित्र भी साहब के कारण रुठ गए। जो एक बार मिलता है वो दूसरी बार मिलने से कन्नी काटता है। उनको लगता है कि फिर साहब की बात करेगा, फिर दिमाग खाएगा।

लेकिन मेरी भी मजबूरी है, मेरी हर बात साहब से शुरू होती है और साहब पर ही आकर रुकती है। मैं उनसे अलग कुछ और सोच ही नहीं पाता। न मैं कण्ठी पहनता, न भजन गाता, न कभी आरती करता, न कोई ग्रन्थ पढ़ता। बस मुझे साहब अच्छे लगते हैं। कारण मुझे भी नहीं पता, लेकिन बस अच्छे लगते हैं। 

बात इतनी सी है कि बचपन में पुरखों से पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब की लीलाओं के चर्चे, किस्से सुनता था, टेपरिकार्डर पर उनके प्रवचन सुनता था। सुनते सुनते और समय बीतते बीतते न जाने कब उनसे गहरा जुड़ गया मुझे भी पता नहीं चला। इसमें मेरी क्या गलती है? मेरे आसपास के लोगों को मैं समझ नहीं आता, और वो लोग मुझे समझ नहीं आते। मैं उन्हें मैं पागल और सर्किट लगता हूँ।

मेरे जीवन को देखने का तरीका बिल्कुल अलग है। मेरे अपने मेरे विचारों से जुड़ नहीं पाते, समझ नहीं पाते। मैं भी तो उनकी ही तरह हाड़ मांस से बना सामान्य और सामाजिक व्यक्ति हूँ, फिर वो मुझे अन्य ग्रह का प्राणी क्यों समझते हैं। परमात्मा से प्यार कर बैठना कैसे गलत है, साहब से लगन लगा लेना भला कैसे गलत है। जबकि यही तो जीवन का उद्देश्य है, यही तो जीवन की पूर्णता और उपलब्धि है।

जब कभी कोई कहता है कि सुमिरन बंद कर दो, साहब को याद करना बंद कर दो, उन्हें हृदय से निकाल दो...रो पड़ता हूँ। उन्हें कैसे समझाऊं की नस में दौड़ रहे खून को शरीर से भला कैसे अलग करूँ। मैं उनकी सुहागन हूँ, उनके नाम की सिंदूर अपने हाथों से कैसे मिटा दूँ....😢😢

ज्वलंत मुद्दे...💐

आज का विषय थोड़ा जुदा है, नैतिक मूल्यों के विरुद्ध भी। लेकिन मुझे लगता है कि यह चर्चा का विषय जरूर होना चाहिए। उम्मीद करता हूँ कि आप सबकी नजर इस विषय के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर अवश्य जाएगी।

हमारे प्राचीन शास्त्रों के अनुसार जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में बांटा गया है, जिन्हें पुरुषार्थ भी कहा गया है। इन्हें जरा करीब से देखें तो जीवन को चलाए रखने, गतिमान रखने के लिए काम का महत्वपूर्ण स्थान है। जिसे हममें से अधिकतर लोग हेय दृष्टि से भोग की वस्तु भी कह देते हैं। खैर...

हम गहराई से सोचें, सामाजिक दृष्टिकोण अपनाएं, विस्तृत नजर से देखें तो पाएंगे कि काम जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। अब हमारे सामाजिक ढांचे में अविवाहित, सन्यासी, वानप्रस्थी, ब्रम्हचारियों जैसे लोगों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः हर किसी को सही समय पर विवाह संस्कार अवश्य अपना लेना चाहिए।

अब आते हैं असली मुद्दे पर...
विवाह की बात जब होती है तो हमारे शारीरिक रूप से विकलांग भाई बहन बहुत निराश होते हैं, उन्हें कोई जीवन साथी नहीं मिलता, उन्हें ठुकरा दिया जाता है, अपनी अपंगता के कारण काम जैसे जीवन के महत्वपूर्ण विषय से वंचित रह जाते हैं। जिससे उनमें मानसिक विकृति आती है, हीन भावना का जन्म होता है, अंततः वो अमूल्य मानव जीवन से निराश होते हैं। अतः उन जैसे लोगों के कामोत्तेजना की तृप्ति हेतु सरकारी नियंत्रण तले, उनकी मांग पर सेक्स वर्कर (महिला/पुरुष) की व्यवस्था की जानी चाहिए। दरअसल हमारा समाज विकलांगों को सिर्फ खाने, पहनने और जीवन निर्वाह ही देता है, जबकि उनकी कामेक्छाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

यह विषय भारत जैसे बंद समाज के लिए विचारणीय है, नया है। परंतु कई देशों में वेश्यावृत्ति वैध है। जिसके कारण विकलांगों का जीवन स्तर, वैचारिक स्तर, समाज से जुड़कर जीने की दरों में सुधार देखा गया है साथ ही अपराधों की संख्या में भी कमी आई है। एक बात और क्लियर कर देना चाहता हूँ कि पुरूष या महिला वेश्यावृत्ति को कानूनी रुप से मान्यता दिए जाने का पक्षधर नहीं हूं, लेकिन विकलांगों को जीवन और समाज के मुख्य धारा में जोड़ने के अन्य उपायों के साथ ही यह सुविधा दी जानी चाहिए।

कुछ लोग कह सकते हैं कि सरकारी अंडा, सरकारी शराब क्या कम हैं जो अब सरकारी वेश्यालयों के बारे में सोचा जाने लगा है। खैर, लेख लम्बा हो रहा है, ऐसे में लाभ-हानि सोचने के लिए आप सबसे परिपक्वता की उम्मीद करता हूँ...

नाम का दीपक...💐

इस बार की एकोत्तरी चौका में एक दीया अपने नाम का भी जलाया था। उनकी आशीष से भरी निःशब्द और बोलती नजरें मेरे कलशे और प्रज्वलित दीपक पर भी अवश्य गई होगी। उन्होंने मेरे अस्तित्व को भी जरूर छू लिया होगा।

हर बार की तरह इस बार भी मेरी अर्जी स्वार्थ से भरी थी। सदा सर्वदा से उस तेज प्रकाश पुंज से मेरा काम ही हाथ फैलाकर और निर्लज्ज होकर भीख माँगना है। कभी धन की भीख, कभी स्वास्थ्य की भीख तो कभी भक्ति और मुक्ति की भीख। उन्होंने मेरे घट के भीतर भी जरूर झाँककर देखा होगा, जीवन में फैली गंदगी को जरूर देखा होगा।

चौका के वक्त अंतःकरण के सारे कपाट खोल दिए थे, तन मन में चौका के शब्द और नाद गुंजायमान थे। हृदय प्रफुल्लित होकर उनकी आगोश में अर्पित था। पूर्ण विश्वास है कि उनके आशीष तले मेरा भी जीवन पल्लवित, पुष्पित और पोषित होगा। सपनों को पंख मिलेंगे, जीवन में रुमानियत आएगी, कलुषित विचार और अंधकार मिट जाएंगे। जो पान परवाना और प्रसाद मुझे मिला उसके जरिए निश्चित ही मेरे पूरे परिवार का भविष्य जगमग होगा, रौशन होगा।

साँसों का अंतिम पल...💐

अस्पताल... ऐसी जगह जहाँ एक एक सांस के लिए जूझना पड़ता है। जहाँ व्यक्ति बेबस और लाचार होता है। बड़ी से बड़ी संपत्ति वाला ही क्यों न हो, अस्पताल की चौखट पर उसकी बेहिसाब संपत्ति कम पड़ जाती है। नामी व्यक्ति की सारी कीर्ति फीकी पड़ जाती है, उसका सारा अहंकार मृत्यु के दरवाजे पर नतमस्तक पड़ा होता है।

माता पिता, बंधु सखा और रिश्तेदार दीनहीन भाव से बिलखते रहते हैं। परमात्मा के आगे बिनती करते रहते हैं कि उसके बदले मुझे ले जाओ, लेकिन मेरे उस प्रिय को छोड़ दो। उसकी अभी उम्र ही क्या हुई है जो उसे ले जाने रथ तैयारकर लाए हो? 

प्रकृति का का नियम इतना क्रूर क्यों है? शिकायतें क्यों न करूं? अस्पताल के बिस्तर का नंबर हर बार अलग अलग होता है, चेहरे भी हर बार अलग अलग होते हैं। लेकिन दर्द सबका वही होता है, एक जैसे होता है। मैं अक्सर उन जैसे मासूम चेहरों के लिए भगवान से लड़ पड़ता हूँ, जूझ पड़ता हूँ। जबकि उसका अंजाम जानता हूँ, अच्छे से जानता हूँ।


साहब को नस नस में जीना...💐

जब मैं कहता हूं-
"साहब को नस नस में जीना"
तो ये सिर्फ शब्द नहीं हैं, इसका भाव बड़ा गहरा होता है। इसकी थाह लेने के लिए आकाश की ऊँचाई और पाताल की गहराई भी कम है। इस स्थिति में जीवन जीना सचमुच में जीने के जैसा है। व्यक्ति की दशा अपरंपार होती है। यह स्थिति इंद्रियों और देह के पार की अनुभूति होती है।

अपने ही हाथों अपने प्राण को शरीर से निकालकर हथेली पर रखकर चलने जैसा है, समर्पण की पराकाष्ठा है। तब खुद के जीवन पर खुद का ही वश नहीं होता। सबकुछ उनकी इक्छा पर चलता है। वो सुलाता है, जगाता, हंसाता और रुलाता है। वो हरदम सामने रहते हैं। सोते, जागते, बात करते, चौका करते नजर आते हैं।

जैसा उन्होंने "साहब को नस नस में जीना" का मतलब बताया। मैं भी सोचता हूँ कि ऐसे ही मैं भी साहब को नस नस में जी लूँ। लेकिन साहब के प्रवचन के दस मिनट के शब्दों को भी जीवन में उतारने में ही हाथ पांव फूल जाते हैं। सच में दुनिया में विरले ही होंगे जो साहब को पल पल जीते होंगे। उनके दिव्य जीवन की कल्पना मात्र से सिर श्रद्धा से झुक जाता है।


मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

समानता का अधिकार...😢

राजनीति विज्ञान मेरा प्रिय विषय रहा है। सन 1998 में 12वीं की परीक्षा में मुझे 100 में से 73 अंक प्राप्त हुए थे। साथ ही कक्षा 12वीं की परीक्षा में अपने क्लास कला समूह में स्कूल टॉपर रहा। लेकिन जैसे जैसे समय आगे बढ़ा आंटे दाल का भाव भी पता चला।

कक्षा 12वीं में राजनीति विज्ञान विषय के मौलिक अधिकार से संबंधित पाठ सदा के लिए कंठस्थ कर लिया था। संविधान द्वारा मौलिक अधिकार के माध्यम से भारतीय नागरिकों को अतिमहत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। इन मूलभूत अधिकारों में "समानता का अधिकार" भी है जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में वर्णित है। क्या सच में समानता का अधिकार है? क्या भारतीय कानून सभी देशवासियों पर समान रूप से लागू होता है? उत्तर "नहीं" में प्राप्त होता है। लोगों की दलीलें और राय भी इसे लेकर अलग अलग हैं।

एक वर्ग का मानना है कि कुछ नागरिकों को विशेषाधिकार, कुछ राज्यों को विशेषाधिकार, क्षेत्रवाद, सरकारी नौकरियों में जातिगत आरक्षण, सार्वजनिक और निजी संस्थानों में समान काम का आसमान मजदूरी दर, महिलाओं और पुरुषों की लैंगिक आधार पर आसमान मजदूरी दर, समाज में व्याप्त आर्थिक शोषण जिसमें निचले तबके का व्यक्ति कुचला जाता, छुआछूत जैसी कुप्रथा का अब तक अंत न हो पाना, विपक्षियों द्वारा विरोध के लिए विरोध करना, नेताओं के राजनैतिक दुर्भावना के कारण जनता का पीसा जाना, साम्प्रदायिक कट्टरता, न्याय व्यवस्था में देरी, प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा शासन की शक्तियों का दुरुपयोग अपने या किसी विशेष वर्ग की महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किया जाना, वोट बैंक की राजनीति, देशी व विदेशी दबाव समूह जैसे आतंकवाद और चरमपंथी ताकतें, विदेशों से व्यावसायिक संबंध और प्रतियोगिता आदि के समानता के कानून के मार्ग की बाधाएं हैं।

दूसरा वर्ग यह भी कहता है कि भारत एक विशाल देश है। इसकी विशाल जनसंख्या, भौगोलिक विभिन्ताओं, विभिन्न सांस्कृतिक जीवन शैली और मान्यताओं, अलग अलग सम्प्रदाय और धार्मिक विचारधाराओं के बीच समानता का अधिकार का बराबर पालन नहीं किया जा सकता। अतः विशेष लोगों, समुदाय, जाति वर्गों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, राज्य की भौगोलिक सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार उनके संरक्षण के लिए उन्हें विशेषाधिकार प्रदान किया जाना आवश्यक है।

एक तीसरा वर्ग भी है जो कहता है कि समानता के कानून के पक्ष और विपक्ष में अनेकों दलीलें दी जा सकती हैं, अनेकों तर्क दिए जा सकते हैं। उनके अनुसार वर्तमान अंतराष्ट्रीय परिदृश्य में जाति, सम्प्रदाय, व्यक्तिगत लाभ, क्षेत्रवाद की कुंठित भावनाओं से ऊपर उठकर देशहित सर्वोपरि होना चाहिए और ऐसे पुराने और जर्जर कानूनों में संशोधन अवश्य होना चाहिए जो देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने में मदद करे।

अतेकन लिखे के कतेक नम्बर मिलहि जी?? संगवारी मन उत्तर पुस्तिका ल जांच के जरूर बताहु। आउ लिखे के मन रिहिसे, फेर जादा हो जहि। एकठन बाग मोरो घर तीर हावय, भीड़ लग जाहि त मुश्किल हो जहि। फेर काय करबे संझाकुन भात खावत खावत टीवी देख लेबे त जी कटकटा जथे। अतेक पढ़े लिखे अउ डिग्री धरे के कोनो मतलब नई हे साले ल... 😢😢

सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

बोरिंग ज्ञान चर्चा...💐

रोज रोज ज्ञान चर्चा बहुत बोरिंग लगता है। अधिकतर चर्चा करने वाले लोग चर्चा के माध्यम से अपनी बात थोपने में लगे रहते हैं, अपने अहं की तुष्टि करना चाहते हैं। ऐसे अधिकतर लोग चर्चित विषय का अंतिम उत्तर भी जानते हैं, और सबकुछ जानते हुए भी अपनी लम्बी लम्बी तर्कों के माध्यम से दूसरों का समय बर्बाद करते हैं। अगर विषय इंफोर्मेटिक हो, नया और नूतन हो जिसके बारे में अक्सर लोग नहीं जानते तो ऐसी चर्चाओं की सच में सार्थकता है।

आप किसी किताब को कितनी बार पढ़ सकते हैं? दो बार, चार बार, दस या सौ बार... क्या हर बार किताब के शब्द या भाव बदल जाते हैं जिसकी वजह से आपको बार बार पढ़ना पड़े? नहीं न...। मेरे घर में भी एक ही किताब को हर रोज पढा जाता है, रोज शब्दों को दुहराया जाता है... बड़ा बोरिंग लगता है। आए दिन अपनों से ही उलझ पड़ता हूँ।

अगर किताब के भाव भलीभांति समझ आ गए, जिस मार्ग की तलाश थी वो मार्ग किताब से मिल गया, तो उसी दिन वो किताब आपके लिए व्यर्थ हो जाता है। हाँ, चूंकि उस किताब ने आपको रास्ता दिखाया, प्रश्नों के उत्तर दिए, जीवन को रोशनी से भर दिया, इसलिए उस किताब के प्रति हृदय में श्रद्धा उमड़ पड़ना स्वाभाविक है, वो किताब सच में ताउम्र आपके लिए प्रणम्य है।

लेकिन मेरे अपने जो ताउम्र उस किताब को रटने के बाद भी उसके भावों को अंगीकृत नहीं कर सके, और ज्ञान चर्चा का नाम देकर उस किताब के शब्दों पर अपना एकाधिकार समझता है, अपनी दकियानूसी कुतर्कों से दूसरों का माथा खराब करते हैं... चिढ़ होती है, झल्लाहट होती है।

कभी कभी लगता है मेरे अपने जो जीवन भर हर रोज एक ही किताब को रटते रहते हैं, उन्हें उसी किताब के साथ गंगा में विसर्जित करते हुए राम नाम सत्य कह दूँ।


आदिपुरुष कौन...💐

क्या करें...!!! ऊपर वाले ने खोपडिया में कोटकोटले ज्ञान भरकर इस धरती पर अवतरित किया है...☺️☺️ इसलिए कभी कभी न चाहते हुए भी ज्ञान ओवरफ्लो हो जाया करता है, छलक जाता है। लेकिन आदिपुरुष नामक व्यक्ति के ज्ञान के आगे मोर सब्बो ज्ञान अउ डिग्री फेल हो गया। उन आदिपुरुष से विनय है मुझे भी अपने चरणों मे स्थान देकर अपना कल्याण करें।

कुछ लोग पूरा रायता फैला देते हैं यार। लोगों को दिग्भ्रमित करते हैं, अपना झोला भरते हैं। उन्हें दंड तो नहीं दे सकता, चार चप्पल भी नहीं मार सकता। लेकिन मेरे ताज पर उंगली उठाने वालों और मर्यादा लांघने वालों को निःशब्द में कुछ न कुछ जरूर देता हूँ।

मेरे निःशब्द उनकी जिंदगी को कभी न कभी अवश्य छुएँगे, तिलमिला उठेंगे... एक न एक दिन आदिपुरुष कौन हैं समझ जाएंगे... तब तक देर हो जाए... #@$%




बोध की अनुभूति...💐

कहते हैं नाम के निरंतर सुमिरन से बोध प्राप्त होता है। यह भी कहते हैं कि एक बार बोध होने पर इसकी अनुभूति जीवन भर रहता है, भले ही सुमिरन बंद कर दिया जाए।

ऐसे कैसे होगा भला?

जब तक मिठाई खाते रहोगे तब तक ही मुँह मीठा रहेगा, लेकिन खाना बंद करने के कुछ समय बाद मुँह फिर से सिट्ठा हो जाता है।

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

उससे कहना...💐

जब तुम वहाँ जाओगे... 
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, जो हर साल अक्सर गर्मियों में आया करती थी। बहुत बोलती थी... शुरू होती तो खत्म ही नहीं होती थी। अपने घर के चौरा में बैठकर क्रिकेट खेलते लड़कों को देखकर कमेन्ट्री किया करती। 

जब तुम वहाँ जाओगे...
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, जो पहली बार जब गाँव आई तो सफेद और जामुनिया रंग के लिबास में नजर आई थी। किसी स्कूटर की आवाज से समझ आ जाता था कि गाँव पहुंच चुकी है। गांव की हवाओं में उसकी मदमस्त खुशबू बिखर जाती, नजरें उसे ढूंढने लगती।

जब तुम वहाँ जाओगे...
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, जिससे मन कुछ यूं बंध गया कि उसी में अपने जीवन का अक्स पाया करता, उसमें ही डूब जाया करता। धीमे धीमे जिंदगी उसकी ओर बढ़ चली थी। न जाने कब जीने का मकसद वो ही बन गई। उससे लगाव हो गया, प्यार हो गया।

जब तुम वहाँ जाओगे...
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, तालाब के किनारे के सदियों पुराने पीपल पेड़ के पत्ते बरसों बाद भी उसकी छुअन महसूस करते हैं। उसके आने की आहट से आज भी सरसरा उठते हैं। पास में एक बाड़ी भी है, जहां लड़कपन में उसके होंठों ने मेरे गाल और माथे को चूमा था।

जब तुम वहाँ जाओगे...
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, जर्रे जर्रे को उनके बीते हुए मनमोहक यादों से सना पाओगे, जमीन के कण कण में उनके खुशनुमा और सदाहरित प्रेम के निःशब्द पदचिन्ह पाओगे। उनके रंगीन और प्यार भरे लम्हों की दास्तान लोग आज भी दुहराते हैं। किसी पेड़ पर दोनों के नाम दिल बनाकर किसी ने उकेरे हुए हैं, जो बरसों बाद भी ज्यूँ का त्युं गुदा हुआ है।

जब वहाँ जाओगे...
एक साँवली सी लड़की मिलेगी, कहना उससे- वो आज भी कागज के रंगीन पन्नों को दिल की गहराइयों में लिए जी रहा है, उन यादों को आज भी वह सहेज रखा है। वो न होती तो जीवन की इतनी समझ नहीं होती, प्रेम का बोध न होता, जीवन अधूरा ही छूट जाता, कमी रह जाती। उसके होने से ही इस जीवन की पूर्णता है। 

जब वहाँ जाओगे...
साँवली सी लड़की मिलेगी, कहना उसे- मोगरे के फूल उसे अब भी बहुत पसंद है... और खीर भी।

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सबकुछ पहले जैसा ही है...💐

सबकुछ पहले जैसा ही है। धरती, आकाश, तालाब, खेत, बाड़ी, नदी, लोग, गांव, घर, मुहल्ले, गलियां... बस वो अब साथ नहीं हैं। लेकिन मैं उन्हें हमेशा साथ ही देखता हूँ। विचारों, भावनाओं और स्मृतियों में वो हमेशा साथ ही रहते हैं। 

जीवन में हर कोई उमर भर का साथी नहीं होता। कोई पहले छोड़ जाता है, तो कोई बाद में। किसी का साथ एक महीने का होता है तो किसी का एक साल, और किसी का 99 साल। क्या फर्क पड़ता की अब वो साथ नहीं हैं। कुछ लोग तो बस हवा के झोंके की तरह जिंदगी में आते हैं, अपनी खुशबू से जीवन महकाते हैं, यादों के रंगीन और खुशनुमा अहसास छोड़ जाते हैं... आत्मा तक अपनी छाप छोड़ जाते हैं...मोगरे के फूलों की तरह। 

जिंदगी बस इत्ती सी है, कागज के छोटे से गुलाबी पन्ने की तरह, और इस छोटे से पन्ने में अपनी कहानी लिख जानी होती है, और वो अपनी कहानी लिख गए।

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शनिवार, 18 जनवरी 2020

साँसों की लड़ियाँ...💐

साँसों से बनी मोतियों की लड़ियाँ... न जाने कब बिखर जाए। एक एक मोतियों को ध्यान पूर्वक अथक प्रयास से धागे के महीन डोर में पिरोया था, उन्हें सहेजने और संभालने में जीवन फूंक डाला। मोतियों की लड़ियाँ अब पुरानी हो चुकी है, धागे भी जर्जर हो चले हैं। मोती की ये माला किसी भी वक्त समय की बेरहम स्पर्श से बिखर सकती है।

अब हाथ कपकंपाने लगे हैं, जुबान लड़खड़ाने लगे हैं। नजरों के सामने की आकृति भी अब धुंधली हो चली है। आँखों की कोरों से अश्कों की कुछ बूंदे बांहों को भिगो रही है। धागे की टूटन की आहट स्पष्ट सुनाई और दिखाई पड़ रही है।

शिकायत नहीं है, बल्कि अहोभाव का अहसास है। खुश हूं कि आपने मुझे भरपूर दिया, मुझ पर अपना अतुलनीय स्नेह लुटाया। जब भी जीवन मिले, जब भी इस धरा पर आने का सौभाग्य मिले, विनती है... मुझे फिर मिल जाना, सांसों की लड़ियों को धागे में फिर से पिरोना सिखाना।


शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

पतझड़ आ गया...💐

रिश्तों के पंख पखेरू पतझड़ के आगमन से पहले ही उड़ गए। हरितिमा की घूंघट में सजे चेहरों के बनावटी रंग भी समय के साथ धूल गए। वो पेड़ों की साखों से फूल, फल और पत्तियाँ (स्वार्थ) लेकर अपने अपने रास्ते निकल पड़े। वो सदा की तरह ठूँठ खड़ा उन्हें जाते हुए ताक रहा है। लगता है इस बरस पतझड़ का मौसम बहुत जल्दी ही आया। 

खैर, अभी तो कुछ और चेहरे भी आएंगे, जो सूखे हुए फूल, पत्ते, टहनियां भी काट छाँटकर ले जाएंगे। जीवन का यही दस्तूर है। जीवन भी कहाँ हार मानने वाला है, वो तो हर हाल में विषम परिस्थितियों में भी नए अंकुरों के रूप में कहीं भी प्रस्फुटित हो जाया करता है। 

साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...