बहुत मंत्रणा करने के उपरांत मुझे अहसास हुआ कि ऐसा रिएक्शन मेरे खुद के अहं का प्रतीक है। कहीं न कहीं मैं साहब को समझने के अपने तरीके को उनके नजरिए से श्रेष्ठ मानता था। मैं साहब की साखियों को, उनकी वाणियों को गाना नहीं चाहता था बल्कि जीना चाहता था।
उन्हीं दिनों एक युवा संत मिले। बातों ही बातों में उनसे मेरे दिल के तार जुड़ गए। मैंने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने बहुत सरल उपाय बताया। उन्होंने कहा कि तुम साहब की वाणियों को जीना चाहते हो तो सत्संग में बैठो, लेकिन किसी की कुछ मत सुनो। चुपचाप बैठकर सत्संग की समाप्ति तक सत्यनाम का स्मरण करो। उनकी युक्ति काम कर गई। घंटा दो घंटा सत्संग स्थल में बैठकर सत्यनाम का स्मरण करने लगा। धीरे धीरे मुझे सुमिरण में आनंद आने लगा।
तब से जहां भी सत्संग में जाता हूँ एकांत जगह खोजकर बैठ जाता हूँ और उस युवा संत की युक्ति के माध्यम से साहब को जीने की कोशिश करता हूँ।
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