शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

नितांत अकेला ...💐

बहुत ऊँचें ... बहुत ही ऊँचें पर्वत की चोटी पर नितांत अकेले बैठा हूँ। आस पास कोई मौजूद नहीं है। मैं सबकी आवाज, सबकी चीख पुकार स्पष्ट सुन सकता हूँ, देख सकता हूँ। लेकिन मेरी सिसकियों को, मेरे रुदन को सुनने और देखने वाला कोई नहीं है।

मुझसे पहले जो लोग इस शिखर तक आएं हैं, वो लोग बताते हैं कि इस धरातल पर जो भी आया ... रो पड़ा ... दहाड़ मारकर रो पड़ा। दरअसल यह स्थिति ही बड़ी भयंकर है, विचित्र है। इस स्थिति में व्यक्ति न तो जीता है और न ही मरता है। न उसे धूप लगती है और न ही छाँव की अनुभूति होती है। कुछ ठगा ठगा सा महसूस करता है।

इस ऊँचें शिखर की चोटी से व्यक्ति जब भवसागर को निहारता है, तब वह पाता है कि चीख पुकार मचाते लोगों की एक भीड़ चली आ रही है। जिसका कोई मकसद नहीं, जिसका कोई अंत नहीं। उनकी पीड़ा, उनके चीत्कार हृदय को बेधती है। लगता है किस किस की मदद करूँ, किस किस के आँसूं पोंछु, किस किस के दर्द में मरहम पट्टी करूँ।

इस ऊँचे शिखर से सब देखता हूँ, सब सुनता हूँ और दहाड़ मारकर रोता हूँ।

गुरुवार, 13 जनवरी 2022

साहब का प्यार ...💐

मैं तो साहब से मिले प्यार से अभिभूत हूँ, उनकी दया से ओतप्रोत हूँ। वो जो दिखाते हैं, वो जो सुनाते हैं, उन आवाजों और दृष्यों से हर पल घिरे रहता हूँ। साहब से मैं इतना प्यार पाकर धन्य हो उठा। लेकिन यही सब मेरे आंसुओं का कारण भी है। जब साहब ऐसी मानवीय इंद्रियों के पार की बातें दिखाते हैं, सुनाते हैं जो अभूतपूर्व हो। तो रोना भी आता है, और हंसी भी आती है। 

रोना इसलिए आता है क्योंकि उन दृश्यों में कभी किसी करीबी की मृत्यु दिखती है, तो कभी किसी की कराहने की आवाज होती है, मुझसे जुड़े लोगों की तकलीफें होती है, मेरे खुद की जिंदगी से जुड़े दृश्य होते हैं। कई दृश्य और आवाजें तो जानवरों की भी होती है, जो मेरे आसपास मौजूद होते हैं। 

चूँकि इन अनुभूतियों का संबंध मेरे अथवा मेरे अपनों से होता है इसलिए उन ध्वनियों और दृष्यों को अपने दिल से लगा बैठता हूँ, इसमें बह जाता हूँ। और हंसी यह देखकर आती है कि लोग व्यर्थ ही फालतू के, बिना मतलब के, तुच्छ और निपट कर्मों में लिप्त होकर अपना मानुष जनम गवां रहे हैं। 

साहब मुझे जिस शिखर की उस ऊँचाई से दुनिया दिखाते हैं, जिस शिखर की बात बताते हैं, दरअसल मैं इस योग्य ही नहीं हूं। मैं साहब की असीम दया पाने के काबिल ही नहीं हूं, उनकी इतनी दया का पात्र ही नहीं हूँ। मैं ठहरा उनका घोर कलयुगी भक्त, लेकिन न जाने क्यों वो मुझ पर अपना प्यार बरसाते हैं।

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मेरी आध्यात्मिक यात्रा...💐

मैं परिस्थितियों का मारा हूँ। दुखों से बचने के सारे उपाय करता हूँ। मैंने गले में कंठी धारण कर रखी है, लेकिन मेरे परिजन मुझे लाल कपड़े में लपेटे हुए ताबीज भी पहना रखे हैं। एक तांत्रिक ने नहाने के बाद केले के पौधे की पूजा करने को कहा है, तो दूसरे ज्योतिषी ने मूंगा रत्न चांदी की अँगूठी में पहनने को भी कहा है।

मेरा छोटा भाई ओशो का परम भक्त है,  जिससे खूब आध्यात्मिक चर्चा होती है, बहस होती है। वो निर्गुण उपासक है तो मैं सगुन उपासक। वो सुबह चार बजे ओशो का ध्यान धरता है, तो मैं रोज सबके सोने के बाद रात एक-दो बजे साहब को याद करता हूँ।

जितनी बार दामाखेड़ा नहीं गया उतनी बार तो ब्रम्हकुमारी ध्यान केंद्र गया, गायत्री मंदिर गया, हवन में शामिल हुआ, ओशो को सुनने और पढ़ने गया। गीता के अनेकों पन्ने पलटे, बुद्ध और महावीर को पढ़ा और सुना। प्रश्नों के उत्तर जानने, दुखों से बचने के लिए हर किसी का दरवाजा खटखटाया।

मेरी आध्यात्मिक यात्रा पूरी खिचड़ी है यार।

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पान परवाना के फायदे ...💐

बहुत पहले की बात है। एक दिन परम् आदरणीय महंत दीपक साहेब जी से कबीरपंथ में पान परवाना की महिमा के संबंध में चर्चा हो रही थी। उन्होंने चर्चा के दौरान पान परवाना की महत्ता बताई थी। आज वो प्रसंग याद आ गया। साहब से प्राप्त पान परवाना हमारे लिए अमृत तुल्य तो है ही, साथ ही साथ दैनिक जीवन की अनेक समस्याओं का हल भी है, जो बिंदुवार निम्न हैं-

पान खाने का प्रमुख कारण और लाभ यह है कि इसे खाने से पाचन क्रिया बेहतर होती है, क्योंकि इसे चबाते वक्त बनने वाला सलाइवा अधिक मात्रा में बनता है, जो भोजन के पाचन में अहम भूमिका निभाता है।

2 पान का पत्ता, खांसी और कफ की समस्या में लाभकारी साबित होता है। इन पत्तों को पानी में उबालकर उसे पीने से कफ नहीं होता और खांसी भी दूर होती है।

3 शारीरिक दुर्गंध को दूर करने के लिए पान का उपयोग किया जा सकता है, यह काफी प्रभावी उपाय है। 2 कप पानी में पान के 5 पत्तों को उबालें और जब यह आधा रह जाए तब इसे पिएं। इससे शारीरिक गंध दूर होगी।

 4 जले हुए स्थान पर पान के पत्तों को पीसकर बनाया गया लेप लगाकर कुछ देर छोड़ दें, फिर इसे साफ कर इसमें शहद लगाने से लाभ होता है और त्वचा जल्दी ठीक होती है।

मुंह व मसूड़ों से खून खाने की स्थिति में पान के पत्ते में लगभग 10 ग्राम कपूर डालकर इसे चबाने से फायदा होता है। इसके अलावा श्वास की दुर्गंध के लिए भी पान बेमिसाल है।

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बुधवार, 12 जनवरी 2022

साहब के प्रति थोड़े भाव हैं...💐

मेरे करीब के लोग कहते हैं जो दिल में आता है, लिख देते हो। पूछते हैं- "साहब से डर नहीं लगता क्या? साहब भी तुम्हें पढ़ते हैं, तुम्हारी पोस्ट पर कमेंट करते हैं।" पर मुझे साहब से भला क्यों डर लगेगा? मेरे अंदर उनके प्रति थोड़ा सा प्रेम है, थोड़े भाव हैं, कोमल भावनाएँ हैं, जो उन्हें लिख दिया करता हूँ।

मुझे उनसे डर नहीं लगता। हाँ, लेकिन मुझे शर्म जरूर आती है, लाज जरूर आती है कि उन्होंने जो कहा उस तरीके से मैं उनको जी नहीं सका। इसलिए उनकी बंदगी करने नहीं जाता। उनसे आंख मिलाकर उनके सामने खड़े नहीं हो सकता, उनके बगल खड़े होकर उनके साथ सेल्फी नहीं ले सकता।

अगर साहब से डरूँ तो उनसे सत्यलोक जाने का मार्ग कैसे पूछ पाऊंगा? उनसे कैसे विनती कर सकूंगा की जिस तरह रानी इन्द्रमती को साहब कबीर ने जीते जी सत्यलोक का दर्शन करवाया, उसी तरह मुझे भी सत्यलोक का दर्शन करवाएँ। अगर उनसे डरूँ तो उनके मार्ग में चलते हुए आने वाली बाधाओं से निकलने का उपाय कैसे और किससे पूछूँगा?

बेशक, मेरे लेख में उनकी आलोचना भी पाएंगे, लेकिन उसके पीछे मेरा प्रेम ही होता है। क्या वो ये सब नहीं समझते होंगे? वो सब समझते हैं, उनको मेरे पल पल की खबर है। उनकी प्रतीक्षा में जीवन खाक हो गया, क्या वो नहीं देखते होंगे? क्या वो मेरे शब्दों में छिपे उनके प्रति कोमल भावनाओं को महसूस नहीं करते होंगे?

और जहां तक उनकी मर्यादा की बात है, तो मैं मर्यादा का पालन करता हूँ। लेकिन मर्यादा में रहकर अपने हर भावों को व्यक्त करने में मुझे दिक्कत होती है। जिस तरह धर्मनि आमिन और साहब कबीर के सम्बन्धों को समझ सका हूँ उसके अनुसार धर्मनि आमिन अपनी हर समस्या को, हर पीड़ा को, साहब के प्रति प्रेम को दिल खोलकर और मर्यादा लांघकर उनके चरणों में अर्पित कर किया। तो मैं साहब से अपनी बात कहने में भला क्यों डरूँ?

बल्कि मैं तो अनेकों बार जानबूझकर अमर्यादित होकर लिखता हूँ ताकि वो कमेंट करके मुझे डांटे, मेरी कमजोरियों से मुझे अवगत कराएं, मुझे तराशें, मेरा जीवन सवारें। मैं कच्ची मिट्टी का घड़ा हूँ, वो मुझे अपने अनुसार जैसा चाहें वैसा ढालें, मैंने तो उनके चरणों में जीवन बिछा दी है।

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मेरी बिटिया चित्रा...💐

मेरी बड़ी बिटिया... कक्षा चौथी, केंद्रीय विद्यालय डीडी नगर, रायपुर में पढ़ती है। जब वो कोई भजन गाती है तो पिता होने के नाते भावावेश उसे रिकार्ड कर लेना चाहता हूं। आज स्कूल के ऑनलाइन म्यूजिक क्लास में हारमोनियम के साथ एक गीत गुनगुना रही थी, जिसे बिना उसके परमिशन के रिकार्ड कर ही लिया।

मैं अपने बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं करता कि वो मेरी हर इक्छाओं का पालन करें, उन्हें मेरे अनुसार ही संस्कार मिले। लेकिन उनके मन में साहब के प्रति गहरा जुड़ाव है, जन्मजात रूप से साहब के प्रति लगन है। वो अपनी मां के साथ अक्सर साहब के भजन ऐसे ही हारमोनियम लेकर गुनगुनाते रहती है।

और मैं ...उनके भजन सुनकर कमरे में कंबल ओढ़े लेटे हुए भावावेश रो पड़ता हूँ।


साहब से मिलन की प्रतीक्षा ...💐

दोस्तों, जब मुझे विचार आते हैं कि मैं साहब से मिलने क्यों जाऊँ? तो मुझे जो उत्तर मिलते हैं, वो बिंदुवार निम्न हैं-
1) प्रेमवश
2) भौतिक समस्या वश
3) ज्ञान/मुक्ति की प्यास वश
4) अहंकार वश

जब पहले बिंदु पर ध्यान जाता है तो लगता है की उनसे प्रेम जताने के लिए तो फेसबुक ही पर्याप्त है। महंगाई बढ़ गई है, बस ऑटो में आने जाने में ही तीन सौ रुपए लग जाते हैं। 😢

जब दूसरे बिंदु पर ध्यान जाता है तो लगता है कि सबको एक न एक दिन सबको मरना ही है। तो कुछ सांसे और माँगने भला क्यों जाऊँ? वैसे भी डॉक्टर ने बोल दिया है कि जल्दी निपट जाओगे। अगर उनकी चौखट से मुझे अमरता मिलती तो जरूर जाता। 😢

जब तीसरे बिंदु पर ध्यान जाता है तो लगता है कि मुझे तो ज्ञान और मुक्ति की प्यास ही नहीं है। फिर जाने का क्या फायदा। मुझे तो फिर से जन्म लेना है, वो भी पंथ श्री उदितमुनि नाम साहब और प्रखर प्रताप साहब के चरणों में।😢

जब चौथे बिंदु जो सबसे खतरनाक चीज है, पर ध्यान जाता है, तो लगता है कि मैं उन्हें क्यों बताने जाऊँ की जो आपने कहा उस तरीके से मैंने साहब को जी लिया। मैं क्यों उम्मीद करूँ की मेरी प्रतीक्षा में वो फूल माला लिए खड़े होंगे की साहूजी आएंगे, मेरा भक्त आएगा, ज्ञानी होकर आ रहा है, तो उसका भव्य स्वागत करूंगा।😢

मित्रों, इस तरह साहब से मिलने का मुझे कोई कारण नहीं मिलता। जब भी उनसे मिलने के बारे में सोचता हूँ तो मेरे लिए कपाट बंद ही पाता हूँ। और मैं ज्यादा चिंता न करते हुए चुपचाप भात साग खाकर कंबल ओढ़कर सो जाता हूँ।

😊😊😊

रविवार, 2 जनवरी 2022

सूनापन ...💐

सिर छुपाने लायक घर है, आज्ञाकारी बच्चे हैं, मुझसे प्यार करने वाली और मुझे अपने हृदय में स्थान देने वाली पत्नी है, जिंदगी के उबड़ खाबड़ रास्तों में आने वाली मुसीबतों में मार्गदर्शन करने वाले माता पिता और सास ससुर हैं, मित्रवत मेरे दो भाई हैं। जीवन चलाने लायक छोटी सी नौकरी जो आय का जरिया है। मोबाइल है, टीवी है, मोटरसाइकिल है। जीवन को चलाने के लिए जितनी भी भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, वो सब है।

लेकिन कुछ तो ऐसा है जो मेरे पास नहीं है, कुछ तो ऐसा है जिसकी कमी मुझे शिद्दत से महसूस होती है। सबकुछ होने के बाद भी जीवन में एक खालीपन, सूनापन और एक रिक्तता का बोध पाता हूँ। क्यों? इसका कारण क्या है? और इसका जिम्मेदार कौन है?

ये मैं बचपन से ही महसूस करता रहा हूँ। एक दर्द है, जिसकी वजह खुद मुझे नहीं पता, एक खोज है, अतृप्त प्यास है। कुछ तो ऐसा है जो मुझे जीने नहीं देता है, हंसने और मुस्कुराने की वजहें नहीं देता। क्या कोई मेरे जैसा खालीपन, सूनापन, दर्द और उदासियों में जीता है? कोई हो तो मुझे भी बताएं।

साहब का द्वारपाल ...💐

2008 में मैं रायपुर के मेकाहारा अस्पताल में भर्ती था। डॉ. मनोज साहू, मनोरोग विशेषज्ञ मेरा इलाज कर रहे थे। मैंने उनसे एक घण्टे के लिए अस्पताल से बाहर जाने की परमिशन मांगी। हाथ में ड्रीप चढ़ाने वाली सुई लगी हुई थी। मैं उसी हालत में पत्नी के साथ ऑटो रिक्शा पकड़ कर कटोरा तालाब रायपुर साहब से मिलने निकल पड़ा।

वहाँ एक द्वारपाल मिले। वो मुझे देखते ही समझ गए कि अस्पताल से आया है। मैंने उनसे साहब से मिलने की इक्छा जताई। उन्होंने आंखें ततेरते हुए वापिस जाने को कहा। लेकिन मैं जिद पर अड़ा रहा। वे मुझे झल्लाते हुए बोले कि जब बीमार हो, तो ऐसी हालत में साहब के पास मत जाओ, साहब को भी बीमारी लग सकती है। चाहो तो पान परवाना और प्रसाद तुम्हें दे सकता हूँ। 

लेकिन मैं भी अहंकारवश जिद पर अड़ा रहा कि मेरे साहब हैं, मुझे उनसे मिलने का अधिकार है, और साहब की प्रतीक्षा में वहीं बैठ गया। उस दिन डॉ. भानुप्रताप साहब के दर्शन हुए, बंदगी हुई, प्रसाद मिला। लेकिन उस द्वारपाल के लिए मन में चिढ़ हो गई, क्योंकि उन्होंने मुझे साहब से मिलने से रोका था।

समय बीतने के बाद जब उस द्वारपाल के बारे में विचार उठे तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। साहब और साहब के पूरे परिवार का जीवन अनमोल हैं, अमूल्य है। वो सारे जगत की पीड़ा हरने ही तो हम सबके बीच इस धरा पर अवतरित हैं। ऐसे में साहब अथवा साहब के परिवार पर हमारी वजह से किसी तरह का संकट न आ जाए, इसका हमें ध्यान रखना चाहिए। 

जब हम उनके चरणों तक जाएं तो कम से कम नहा धोकर और साफ सुथरे तरीके से जाएं, सलीके से जाएं, बीमारी लेकर न जाएं, अगर बीमारी लेकर जाना भी पड़े तो निश्चित दूरी बनाए रखें। साहब से फरियाद करने बहुत गंभीर और जीर्णशीर्ण अवस्था में लोग आते हैं।

अब तक मैं साहब के द्वारपालों से बहुत चिढ़ता रहा हूँ, उनको लेकर मेरे अनुभव कभी अच्छे नहीं रहे हैं। लेकिन देर से ही सही उस द्वारपाल/संत के लिए हृदय में आज प्रेम उमड़ ही पड़ा।

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मेरे हुजूर पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब ...💐

मुझे ठीक से याद नहीं है, लेकिन शायद सन 1984 या 1985 की बात है, तब मैं 4 या 5 वर्ष का था। हमारे गाँव कारी, जिला बलौदाबाजार (छ.ग.) में पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब का आगमन हुआ था। तब गांव में बिजली नहीं हुआ करती थी, न ही लाउडस्पीकर, और कैरोसिन वाली लालटेन जलाकर सभा स्थल पर रौशनी की गई थी। जाड़े का मौसम था, लोग जमीन पर धान के पैरा बिछाकर और चादर ओढ़कर बैठे थे। मैं भी बहुत खुश था कि साहब हमारे गाँव आएं हैं, और अपने दादा की गोद में वहां मौजूद था।

साहब ने सभा स्थल में क्या कहा, मुझे नहीं पता। लेकिन उस एक पल की हल्की सी धुंधली तस्वीर है। मंच स्थल पर साहब किसी खड़े हुए व्यक्ति से कुछ बात कर रहे थे। मैं जब बड़ा हुआ तब दादाजी ने उस घटना का विवरण मुझे बताया कि करीब शाम के 7 बजे पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब का मंच पर आगमन हुआ। "उस वार्तालाप को हुबहू शब्दों में नहीं कह पा रहा हूँ, इसलिए उसका सार लिख रहा हूँ।"

उस मंच से साहब ने प्रश्न करते हुए कहा था कि "दुनिया में विरले लोग ही हैं जो परमात्मा को जीते हैं। कौन है जिसे साहब की प्यास है? कोई है?" तब गाँव के एक व्यक्ति ने खड़े होकर साहब से कहा की मुझे परमात्मा दिखा दीजिए। तब साहब ने कहा था चलो मेरे साथ तुम्हें परमात्मा से मिलवाता हूँ। लेकिन पागल हो जाओगे तो मुझे दोष मत देना। जो भी परमात्मा से मिलना चाहता हो, चलो मेरे साथ। यह सुनकर सभा स्थल में सन्नाटा छा गया। वह व्यक्ति सकपका गया, घबरा गया, और अपनी जगह बैठ गया। गांव का कोई भी व्यक्ति साहब के साथ चलने को तैयार नहीं हुआ। 

दादाजी से पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब की ऐसी कहानियां, उनकी अनेकों लीलाएँ सुनते हुए बड़ा हुआ हूँ। इसलिए उनके प्रति गहरा जुड़ाव है, उन्हें शिद्दत से याद करता हूँ।

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शनिवार, 1 जनवरी 2022

पत्नी और बच्चों के चरणों में मेरी बंदगी...💐

मैं घर पर रोज शाम को होने वाली संध्या आरती में कभी शामिल नहीं होता। अधिकतर जब संध्या आरती होते रहती है उस समय मैं ऑफिस से घर लौटकर कम्बल ओढ़े बिस्तर पर पड़े रहता हूँ। मेरी पत्नी और दोनों बेटियाँ मिलकर संध्या आरती करतीं हैं। संध्या आरती के बाद मेरी पत्नी और दोनों बच्चे मेरी बंदगी करने और साहब का चरणामृत देने कमरे में आतीं हैं।

जिस ढंग से जिंदगी को मैं देखता हूँ, तो पाता हूँ कि मेरे जैसा मलिन व्यकितत्व किसी का भी नहीं है, सारे जहान की मलिनता मेरे ही अंदर है, सारी बुराइयाँ मुझमें ही भरी पड़ी है। अपने जीवन को जब साहब की ऊँचाई से, साहब की दृष्टि से देखता हूँ तो पाता हूँ की कोई मेरी बंदगी करे, "इस काबिल तो मैं बिल्कुल भी नहीं हूं।"

अक्सर मैं पत्नी और बच्चों से कहता हूं कि वो आरती सम्पन्न होने के बाद साहब की लगी तस्वीर की बंदगी करें, साहब की बंदगी करें, मेरी नहीं। जबकि मैं यह भलीभांति जानता हूँ कि किसी को साहेब बंदगी बोलते हैं, साहेब बंदगी करते हैं, "तो साहब की ही बंदगी होती है", किसी व्यक्ति विशेष की नहीं।

जब पत्नी और बच्चे मेरी बंदगी करने कमरे में आती हैं तो यह मेरे प्रति उनका स्नेह है, प्रेम है, एक पति और एक पिता का सम्मान है। यही कबीरपंथ की परंपरा भी है, और इसी परंपरा के अनुरूप मेरी पत्नी और मेरे बच्चे जन्म से पले बढ़े हैं।

यह सब जानते और समझते हुए भी उनसे कहता हूं कि मेरी बंदगी न करें, पर वो नहीं मानते। उनके द्वारा नियमित रूप से इस परंपरा के निर्वाहन के सामने मैं नतमस्तक रहता हूँ और मुझे लगता है कि मैं अपने बच्चों और पत्नी की बंदगी करूँ। "उनके चरणों में मेरी बंदगी, सप्रेम साहेब बंदगी।"

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साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...