जीवन में इतनी मलिनता है कि ये शरीर उनके ओजस्वी और दिव्य स्वरूप का दर्शन-बंदगी करने के काबिल ही नहीं है, उन्हें स्पर्श करने के काबिल ही नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, माया और अहंकार की मैली चादर से जिंदगी ढंकी हुई है।
न जाने कितनों को धोखा दिया, न जाने कितनों से झूठ बोला, न जाने कितनों का दिल तोड़ा, न जाने कितनी बार लालच किया, न जाने कितने ही व्यर्थ के प्रपंचों में पड़ा रहा। पूरा जीवन ही कीचड़ से सना है। और यह सिलसिला अनेक जन्मों से निरंतर चला आ रहा है।
गले में उनके नाम की कंठी भी नहीं बाँधी, कभी उनकी आरती नहीं गाई, कभी संध्या पाठ भी नहीं की, कभी श्रद्धा पुर्वक पान परवाना नहीं लिया, कभी मेला नहीं गया। कभी हृदय खोलकर संतों के शरणागत नहीं हुआ, उनसे बहस करता रहा, तर्क कुतर्क करता रहा।
परमात्मा के लिए हृदय के कपाट कभी खोले ही नहीं, उन्हें कभी अंतरतम से पुकारा ही नहीं। लेकिन अब पश्याताप होता है, और उनके सामने जाने में लाज आती है। समझ नहीं आता कि अपने विचारों की मलिनता और जीवन में फैली गंदगी उनसे कैसे छुपाऊँ। किस विधि अपना हृदय लेकर उनके पास जाऊँ।