अगर माँगना ही प्रार्थना है तो यह एक तरह से शिकायत हो गई की हमें उन्होंने अभी तक कुछ नहीं दिया जो वो दे सकते हैं, या जो दूसरों को प्राप्त है वह हमें अभी तक अप्राप्त है।
प्रार्थना का सच्चा मतलब तो धन्यवाद का भाव है, अहोभाव का भाव है। अहोभाव में जीना ही प्रार्थना है। जितना मिला वह जरूरत से ज्यादा मिला। जो भी मिला वह स्वीकार है, जो नही मिला वह भी स्वीकार है। क्या ऐसे स्वीकार भाव से जीने में कोई दुविधा, परेशानी व्यक्ति को उसके जीवन मे हो सकती है भला??
धन्यवाद साहब सांसे देने के लिए, धन्यवाद जीवन देने के लिए, धन्यवाद इस जगत के मीठे नमकीन स्वाद चखाने के लिए, धन्यवाद चरणों में जगह देने के लिए...
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