रविवार, 14 अक्तूबर 2018

गुरु, शिष्य और परमात्मा...💐

कहते हैं परमात्मा खुद के अंदर ही हैं। बस अपने भीतर ढाई इंच उतरकर हृदय के पट खोल लो, उनका रूप निहार लो, वो खुद से अभिन्न हैं।

लेकिन वो कैसे अभिन्न हो सकते हैं? परमात्मा की अनुभूति तो हिमालय की ऊंचाई है, सागर की अतल गहराई है। एक साधारण मानव उनके साथ कैसे एकमेव हो सकता है, कैसे अभिन्न हो सकता है? उनकी थाह तो इंसानी इन्द्रियों से परे है। हाँ, ये जरूर हो सकता है कि स्वयं के अस्तित्व के भीतर उतरकर, झीने आवरण का परदा उठाकर सिर्फ उनकी झलक देख सकें।

जिनकी आवाज सुनी जाती है, जो इशारे में अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं, जो अनहद की बात बताते हैं, वो तो गुरु हैं, साहब हैं। फिर व्यक्ति गुरु से भी कैसे अभिन्न हो सकता हैं। गुरु के समकक्ष भी तो शिष्य कभी नहीं हो सकता। गुरु की महिमा, गुरु की ऊंचाई, गुरु के गुरुत्व का आंकलन शिष्य कर ही नहीं सकता।

हाँ, गुरु और परमात्मा अभिन्न जरूर हो सकते हैं, लेकिन एक साधारण मानव, एक अदना शिष्य न तो कभी गुरु से और न ही परमात्मा से अभिन्न हो सकता।

💐💐💐

साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...