अब हाथ कपकंपाने लगे हैं, जुबान लड़खड़ाने लगे हैं। नजरों के सामने की आकृति भी अब धुंधली हो चली है। आँखों की कोरों से अश्कों की कुछ बूंदे बांहों को भिगो रही है। धागे की टूटन की आहट स्पष्ट सुनाई और दिखाई पड़ रही है।
शिकायत नहीं है, बल्कि अहोभाव का अहसास है। खुश हूं कि आपने मुझे भरपूर दिया, मुझ पर अपना अतुलनीय स्नेह लुटाया। जब भी जीवन मिले, जब भी इस धरा पर आने का सौभाग्य मिले, विनती है... मुझे फिर मिल जाना, सांसों की लड़ियों को धागे में फिर से पिरोना सिखाना।