रविवार, 22 मार्च 2020

मैं साहब की सुहागन...💐

मेरे करीब के लोग कहते हैं दिनभर साहेब-साहेब करते रहते हो, और इस बात को लेकर वे अक्सर मुझे ताने कसते रहते हैं। अनेकों रिश्ते साहब के कारण ही टूट गए, बचपन के मित्र भी साहब के कारण रुठ गए। जो एक बार मिलता है वो दूसरी बार मिलने से कन्नी काटता है। उनको लगता है कि फिर साहब की बात करेगा, फिर दिमाग खाएगा।

लेकिन मेरी भी मजबूरी है, मेरी हर बात साहब से शुरू होती है और साहब पर ही आकर रुकती है। मैं उनसे अलग कुछ और सोच ही नहीं पाता। न मैं कण्ठी पहनता, न भजन गाता, न कभी आरती करता, न कोई ग्रन्थ पढ़ता। बस मुझे साहब अच्छे लगते हैं। कारण मुझे भी नहीं पता, लेकिन बस अच्छे लगते हैं। 

बात इतनी सी है कि बचपन में पुरखों से पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब की लीलाओं के चर्चे, किस्से सुनता था, टेपरिकार्डर पर उनके प्रवचन सुनता था। सुनते सुनते और समय बीतते बीतते न जाने कब उनसे गहरा जुड़ गया मुझे भी पता नहीं चला। इसमें मेरी क्या गलती है? मेरे आसपास के लोगों को मैं समझ नहीं आता, और वो लोग मुझे समझ नहीं आते। मैं उन्हें मैं पागल और सर्किट लगता हूँ।

मेरे जीवन को देखने का तरीका बिल्कुल अलग है। मेरे अपने मेरे विचारों से जुड़ नहीं पाते, समझ नहीं पाते। मैं भी तो उनकी ही तरह हाड़ मांस से बना सामान्य और सामाजिक व्यक्ति हूँ, फिर वो मुझे अन्य ग्रह का प्राणी क्यों समझते हैं। परमात्मा से प्यार कर बैठना कैसे गलत है, साहब से लगन लगा लेना भला कैसे गलत है। जबकि यही तो जीवन का उद्देश्य है, यही तो जीवन की पूर्णता और उपलब्धि है।

जब कभी कोई कहता है कि सुमिरन बंद कर दो, साहब को याद करना बंद कर दो, उन्हें हृदय से निकाल दो...रो पड़ता हूँ। उन्हें कैसे समझाऊं की नस में दौड़ रहे खून को शरीर से भला कैसे अलग करूँ। मैं उनकी सुहागन हूँ, उनके नाम की सिंदूर अपने हाथों से कैसे मिटा दूँ....😢😢

ज्वलंत मुद्दे...💐

आज का विषय थोड़ा जुदा है, नैतिक मूल्यों के विरुद्ध भी। लेकिन मुझे लगता है कि यह चर्चा का विषय जरूर होना चाहिए। उम्मीद करता हूँ कि आप सबकी नजर इस विषय के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर अवश्य जाएगी।

हमारे प्राचीन शास्त्रों के अनुसार जीवन को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में बांटा गया है, जिन्हें पुरुषार्थ भी कहा गया है। इन्हें जरा करीब से देखें तो जीवन को चलाए रखने, गतिमान रखने के लिए काम का महत्वपूर्ण स्थान है। जिसे हममें से अधिकतर लोग हेय दृष्टि से भोग की वस्तु भी कह देते हैं। खैर...

हम गहराई से सोचें, सामाजिक दृष्टिकोण अपनाएं, विस्तृत नजर से देखें तो पाएंगे कि काम जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। अब हमारे सामाजिक ढांचे में अविवाहित, सन्यासी, वानप्रस्थी, ब्रम्हचारियों जैसे लोगों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः हर किसी को सही समय पर विवाह संस्कार अवश्य अपना लेना चाहिए।

अब आते हैं असली मुद्दे पर...
विवाह की बात जब होती है तो हमारे शारीरिक रूप से विकलांग भाई बहन बहुत निराश होते हैं, उन्हें कोई जीवन साथी नहीं मिलता, उन्हें ठुकरा दिया जाता है, अपनी अपंगता के कारण काम जैसे जीवन के महत्वपूर्ण विषय से वंचित रह जाते हैं। जिससे उनमें मानसिक विकृति आती है, हीन भावना का जन्म होता है, अंततः वो अमूल्य मानव जीवन से निराश होते हैं। अतः उन जैसे लोगों के कामोत्तेजना की तृप्ति हेतु सरकारी नियंत्रण तले, उनकी मांग पर सेक्स वर्कर (महिला/पुरुष) की व्यवस्था की जानी चाहिए। दरअसल हमारा समाज विकलांगों को सिर्फ खाने, पहनने और जीवन निर्वाह ही देता है, जबकि उनकी कामेक्छाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

यह विषय भारत जैसे बंद समाज के लिए विचारणीय है, नया है। परंतु कई देशों में वेश्यावृत्ति वैध है। जिसके कारण विकलांगों का जीवन स्तर, वैचारिक स्तर, समाज से जुड़कर जीने की दरों में सुधार देखा गया है साथ ही अपराधों की संख्या में भी कमी आई है। एक बात और क्लियर कर देना चाहता हूँ कि पुरूष या महिला वेश्यावृत्ति को कानूनी रुप से मान्यता दिए जाने का पक्षधर नहीं हूं, लेकिन विकलांगों को जीवन और समाज के मुख्य धारा में जोड़ने के अन्य उपायों के साथ ही यह सुविधा दी जानी चाहिए।

कुछ लोग कह सकते हैं कि सरकारी अंडा, सरकारी शराब क्या कम हैं जो अब सरकारी वेश्यालयों के बारे में सोचा जाने लगा है। खैर, लेख लम्बा हो रहा है, ऐसे में लाभ-हानि सोचने के लिए आप सबसे परिपक्वता की उम्मीद करता हूँ...

नाम का दीपक...💐

इस बार की एकोत्तरी चौका में एक दीया अपने नाम का भी जलाया था। उनकी आशीष से भरी निःशब्द और बोलती नजरें मेरे कलशे और प्रज्वलित दीपक पर भी अवश्य गई होगी। उन्होंने मेरे अस्तित्व को भी जरूर छू लिया होगा।

हर बार की तरह इस बार भी मेरी अर्जी स्वार्थ से भरी थी। सदा सर्वदा से उस तेज प्रकाश पुंज से मेरा काम ही हाथ फैलाकर और निर्लज्ज होकर भीख माँगना है। कभी धन की भीख, कभी स्वास्थ्य की भीख तो कभी भक्ति और मुक्ति की भीख। उन्होंने मेरे घट के भीतर भी जरूर झाँककर देखा होगा, जीवन में फैली गंदगी को जरूर देखा होगा।

चौका के वक्त अंतःकरण के सारे कपाट खोल दिए थे, तन मन में चौका के शब्द और नाद गुंजायमान थे। हृदय प्रफुल्लित होकर उनकी आगोश में अर्पित था। पूर्ण विश्वास है कि उनके आशीष तले मेरा भी जीवन पल्लवित, पुष्पित और पोषित होगा। सपनों को पंख मिलेंगे, जीवन में रुमानियत आएगी, कलुषित विचार और अंधकार मिट जाएंगे। जो पान परवाना और प्रसाद मुझे मिला उसके जरिए निश्चित ही मेरे पूरे परिवार का भविष्य जगमग होगा, रौशन होगा।

साँसों का अंतिम पल...💐

अस्पताल... ऐसी जगह जहाँ एक एक सांस के लिए जूझना पड़ता है। जहाँ व्यक्ति बेबस और लाचार होता है। बड़ी से बड़ी संपत्ति वाला ही क्यों न हो, अस्पताल की चौखट पर उसकी बेहिसाब संपत्ति कम पड़ जाती है। नामी व्यक्ति की सारी कीर्ति फीकी पड़ जाती है, उसका सारा अहंकार मृत्यु के दरवाजे पर नतमस्तक पड़ा होता है।

माता पिता, बंधु सखा और रिश्तेदार दीनहीन भाव से बिलखते रहते हैं। परमात्मा के आगे बिनती करते रहते हैं कि उसके बदले मुझे ले जाओ, लेकिन मेरे उस प्रिय को छोड़ दो। उसकी अभी उम्र ही क्या हुई है जो उसे ले जाने रथ तैयारकर लाए हो? 

प्रकृति का का नियम इतना क्रूर क्यों है? शिकायतें क्यों न करूं? अस्पताल के बिस्तर का नंबर हर बार अलग अलग होता है, चेहरे भी हर बार अलग अलग होते हैं। लेकिन दर्द सबका वही होता है, एक जैसे होता है। मैं अक्सर उन जैसे मासूम चेहरों के लिए भगवान से लड़ पड़ता हूँ, जूझ पड़ता हूँ। जबकि उसका अंजाम जानता हूँ, अच्छे से जानता हूँ।


साहब को नस नस में जीना...💐

जब मैं कहता हूं-
"साहब को नस नस में जीना"
तो ये सिर्फ शब्द नहीं हैं, इसका भाव बड़ा गहरा होता है। इसकी थाह लेने के लिए आकाश की ऊँचाई और पाताल की गहराई भी कम है। इस स्थिति में जीवन जीना सचमुच में जीने के जैसा है। व्यक्ति की दशा अपरंपार होती है। यह स्थिति इंद्रियों और देह के पार की अनुभूति होती है।

अपने ही हाथों अपने प्राण को शरीर से निकालकर हथेली पर रखकर चलने जैसा है, समर्पण की पराकाष्ठा है। तब खुद के जीवन पर खुद का ही वश नहीं होता। सबकुछ उनकी इक्छा पर चलता है। वो सुलाता है, जगाता, हंसाता और रुलाता है। वो हरदम सामने रहते हैं। सोते, जागते, बात करते, चौका करते नजर आते हैं।

जैसा उन्होंने "साहब को नस नस में जीना" का मतलब बताया। मैं भी सोचता हूँ कि ऐसे ही मैं भी साहब को नस नस में जी लूँ। लेकिन साहब के प्रवचन के दस मिनट के शब्दों को भी जीवन में उतारने में ही हाथ पांव फूल जाते हैं। सच में दुनिया में विरले ही होंगे जो साहब को पल पल जीते होंगे। उनके दिव्य जीवन की कल्पना मात्र से सिर श्रद्धा से झुक जाता है।


साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...