मैं इसलिए नहीं सोता की कहीं नींद में कोई स्वांस उनकी महक से वंचित न हो जाए, अमूल्य क्षण उनके बिना व्यर्थ न गुजर जाए। आते जाते साँसों की कीमत आधा जीवन बीतने के बाद समझ आई है। अब ऐसे कैसे उनके बिना सो जाऊँ?
लाल पीली छोटी छोटी गोलियों से शरीर को सुला सकते हो। लेकिन जो अंतरतम की गूंज है उसे कैसे सुलाओगे, उसे कैसे शांत करोगे? वो तो चेतना में घुले हैं, वो तो उन्हीं के रंगों में घुला है। ये रंग कैसे छुड़ाओगे?
वो नस नस में समा चुके हैं, वो लहू के कण कण में मेरे साथ जीते हैं, मेरे अंदर रहते हैं। शरीर के छूटने के पहले उन्हें मुझसे अलग नहीं कर पाओगे।
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