वो घड़ी फिर आ गई, माघ मेला फिर आ गया। पुनः साल भर के कर्मों की समीक्षा की बारी आ गई, उनका आँकलन करने की बारी आ गई। पता ही नहीं चला कि अंतर्मन में कब फिर से धूल की परत जम गई, पता ही नहीं चला कि कब मलिन विचारों की बेलों से अस्तित्व लिपट गई। पिछली बार ही तो माघ मेले में इन मैले विचारों को धोया था, अस्तित्व से हटाया था।
थोड़ी झिझक सी है, थोड़ी घबराहट सी है। कैसे उस दिव्य प्रकाश पुंज का सामना करूँ, कैसे और किस भाव से उनके सामने जाऊँ? मन के इन दूषित विचारों को कैसे उनसे छिपाऊँ? रह रहकर मन व्यथित होता है।
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