खामोशी से सांसो में घुलती नाम की खुमारी बढ़ती रही, अंदर ही अंदर पलती रही। अंधेरे से सुरंग में उसे किसी रौशनी की तलाश थी, जिंदगी की तलाश थी। बरसों पहले अपने अंतरतम में कलश रखकर दीया जलाया था। उसकी रौशनी से उसे मार्ग दिखता रहा, वो आगे बढ़ता रहा। एक दिन दीये की लौ धीमी हो गई, बुझने को आई... और बुझ गयी। अंधेरे में उसे दूर तक कोई नजर नही आता, सिर्फ काले काले से कुछ अजीब आकृति वाली छवियाँ थी, जिसे पीड़ा, दर्द, दुख, बेबसी, लाचारी कहते हैं।
एक दिन अकस्मात उस अंधेरे में जादू हुआ, दीया फिर से जल उठा, कोई फरिश्ता कहीं से प्रगट हुआ, जिसे लोग संत कहते हैं। उस फरिश्ते ने हाथ पकड़कर अंधेरे से सुरंग के बाहर निकाल लिया। रौशनी के स्पर्श से काली आकृतियां हट चुकी थी। प्रकाशित और खुले आकाश के नीचे आकर उसकी तलाश पूरी हो गई। प्रतीक्षा की वो घड़ी जिंदगी जितनी लम्बी थी।
कलशे पर रखा दीया अब भी जल रहा है, उसे अब बड़ी, और भी अंधेरी, और भी ज्यादा गहरी सुरंग पार करनी है...
(Lekhraj Sahu)
lekhrajsahebg@gmail.com
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