दशहरा पर्व पर दामाखेड़ा में उस दिन समाधि मंदिर में साहब का आगमन होने को था। मैं कुछ संतों के साथ सौभाग्य से समाधि मंदिर में पहले से मौजूद था। बड़ी भीड़ थी, साहब के दर्शनों के लिए लोगों का हुजूम था। मृदंग बज रहे थे, सत्यनाम की धुन पर लोग झूम रहे थे, लोग उनकी प्रतीक्षा करते हुए जयघोष कर रहे थे।
तभी समाधि मंदिर में साहब का आगमन हुआ। साथ में पंथ श्री उदितमुनि नाम साहब भी थे। पंथ श्री हुजूर साहब सभी वंश गुरुओं की समाधि में नारियल भेंट और बंदगी कर रहे थे। उदितमुनि नाम साहब छोटे थे। हुजूर साहब उनका सिर पकड़कर वंशगुरुओं के चरणों में उन्हें झुका रहे थे। मैं उन्हें दूर से माथा टेकते हुए देखता रहा। यह दृश्य अनेकों बार देखने को मिला।
उनके झुकने और बंदगी करने के भाव में सद्गुरु कबीर और धर्मनि आमीन साहब की परंपराओं के लिए सर्वस्व समर्पित करने का भाव पाता हूँ, पीढ़ियाँ कुर्बान करने का भाव पाता हूँ।
आज मेरे दो बच्चे हैं, लेकिन समझ नहीं आता कि उन्हें साहब के प्रति झुकने का भाव, बंदगी करने का भाव, साहब के चरणों में माथा टेकने का भाव, समर्पण का भाव कैसे सिखाऊं।