कुछ समय खोज के दौरान अमृत कलश ग्रंथ हाथ लगी। फिर मेरी खोज मिट गई, प्यास बुझ गई। एक ही सार वाक्य पकड़ लिया कि "नाम स्मरण में शरीर को यंत्र बना लेना है, सबकुछ झोक देना है" फिर एक यात्रा शुरू हुई, सुमिरण और ध्यान की यात्रा...और साहब की ओर दृढ़ता से कदम बढ़ा दिए।
फिर एक वक्त ऐसा भी आया जब मार्ग में ढेरों बाधाएं आईं, अड़चनें आई। व्यक्त और अव्यक्त प्रश्नों, अपरिचित और अनअपेक्षित उनझनों की लड़ी सी थी। कुछ समझ नहीं आता कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है, कौन कर रहा है, कोई तो है जो मुझे देखता है, मुझसे बातें करता है। ध्वनियों और दृश्यों की शृंखला से नींद चैन हराम हो गई। अब जीवन की डोर किसी अनजानी सत्ता के हाथ में थी।
जिनसे भी अबूझ प्रश्नों के बारे में पूछता वो मुझे उल्टा उलझा दिया करता। तब तय किया कि जब मैंने साहब को गुरु माना, साहब को परमात्मा माना तो क्यों न उन्हीं से पूछूँ? क्यों किसी और के पैर पकडूं? लेकिन साहब से मिलने के लिए, उनसे प्रश्न करने के लिए यूँ मुंह उठाकर नहीं जा सकते। हिम्मत चाहिए, हौसला चाहिए, जीवन उनके चरणों में अर्पित करने का साहस चाहिए।
क्या मैं साहब से मिला? उनसे क्या बात हुई? आगे क्या हुआ जानना चाहेंगे???