पत्नी रोज निम्न पंक्ति दुहराती है, अक्सर सुनता हूँ-
सिर पर साहब राखिए, चलिए आज्ञा माँहि।
आगे साहेब हाँक देत है, तीन लोक डर नाहिं।।
साहब ने जो कह दिया उस पर बिना सोचे विचारे, आंख मूंदकर अमल कर लेना चाहिये। लेकिन बुद्धि तर्क कुतर्क करती है, साहब के वचनों पर भी मन अपने लिए फायदा-नुकसान सोच ही लेता है।
कई बार मन में यह भी आता है कि इन बातों को साहब ने मेरे लिए थोड़ी कहा है, जिनके लिए कहा है वो लोग जानें, वो लोग उस पर अमल करें...और मन उनके वचनों का भी प्रतिकार करता है।
जबकि उनकी बातों में अपना हित छुपा होता है। समय जब बीत जाता है, तब आँखे खुलती है। वो दूर की बात कहते हैं, जीवन और जीवन के पार की बात कहते हैं, जो जल्दी समझ नहीं आते।