शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

कचरा...💐💐💐

रोज करीब दस बजे सुबह नगर निगम की गाड़ी आती है, कर्मचारी घर के बाहर सिटी बजाकर कचरे का ढेर गाड़ी में भरकर ले जाते हैं। लेकिन रोज सुबह पिछले दिन की अपेक्षा और ज्यादा कचरे का ढेर इकठ्ठा हो जाता है। समझ नही आता कि रोज इतना कचरा मेरे घर में कहाँ से पैदा हो जाता है?
घर के लोग तो बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के हैं, भौतिकवादी तो बिल्कुल भी नही हैं। हर महीने उपवास करते हैं, व्रत रहते हैं, भजन कीर्तन, सत्संग और तीर्थाटन करते हैं। फिर क्यों रोज घर का डस्टबीन भरा ही रहता है?
न जाने क्यों रास्ते उन्हीं की ओर बढ़ते हैं। उसने बहुत चाहा की सुबह दस बजे से छह बजे की नौकरी करे सुकून से, बीबी बच्चों के साथ किसी पिकनिक पर चले जाएं, लेकिन शिखर की जिम्मेदारी हमेशा अपनी ओर खींच ही लेती है...

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

यादों के पन्ने...💐💐💐

अगस्त का वो महीना था, गहरी हरियाली सड़क किनारे खेतों में फैली थी। दोनों अलग अलग शहरों में रहते थे, तीन घंटे का सफर तय कर, पूरे दो महीने बाद उनकी मुलाकात हुई थी।

मोटरसाइकिल एक किनारे टिकाकर, बारिश में भीगे वे दोनों चाय की चुस्की लेते सड़क किनारे झोपड़ीनुमा होटल में अलाव के पास बैठे थे। वो कह रही थी हम लोग अपने छोटे से घर के आँगन में ऐसे ही बारिश के दिनों में बैठकर चाय पीया करेंगे। थोड़ी देर बाद बारिश थम चुकी थी, उसने टिफिन खोलते हुए कहा, गोभी की सब्जी, पराठे और खीर लाई हूँ, आपको बहुत पसंद है न...!!! खुद बनाई हूँ।

बात बहुत पुरानी है, पीने वाले कहते हैं कि पुरानी शराब की बात ही कुछ और होती है। आशियाने में आँगन तब नही था, लेकिन आज किराये का जरूर है। वैसी बारिश अब भी होती है, सड़क किनारे का वो झोपड़ीनुमा होटल अब भी है, वहाँ अलाव अब भी जलता है। उसे गोभी की सब्जी, पराठे, खीर अब भी बेहद पसंद है। लेकिन अब वो पास नही है, करीब नही है।

सुबह सुबह पत्नी की आवाज से उसकी नींद खुली। पूछ रही थी आज ऑफिस के लिए टिफिन में गोभी की सब्जी, पराठे और खीर बना रही हूं, चलेगा न...???
उसने मुस्कुराते हुए हामी भर दी थी।

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

निरंजन...💐💐💐

बिटिया ने आज पूछ ही लिया- "पापा, निरंजन कौन है? गाँव में साधु बाबा बता रहे थे कि वो राक्षस जैसा बहुत बड़ा दिखता है, मुझे बहुत डर लगता है। साहब के गांव जाते हैं तो वो निरंजन रोक लेता है, आगे जाने ही नही देता है। हम लोग कैसे साहब के गाँव जाएंगे?"
पिछले दिनों एक साधु बाबा पांच नाम रटा रहे थे, बता रहे थे की पांच नाम कहने से निरंजन सिर नीचे करता है, फिर आत्मा उसके सिर पर पैर रखकर सत्यलोक की ओर बढ़ता हैं। पांच नाम याद नही होने पर निरंजन वापिस चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए फिर से भेज देता है। ये सब बात सुनकर बिटिया डर गई।
कुछ लोग साहब के ज्ञान को इतना कठिन, दुर्गम और डरावना बना देते हैं की आम भोलाभाला आदमी बेचारा डर के मारे साहब की ओर कदम ही नही बढ़ाता है। खासकर छोटे छोटे बच्चे घबरा जाते हैं, अवचेतन में डर भर जाता है।
जबकि साहब तो कहते हैं-
खोजी होय तो तुरंत मिल जाऊं, एक पल की तलाश में... और कहते हैं- सिर्फ ढाई इंच अपने अंदर ही साहब मिलेंगे।
गलती उन जैसे साधु बाबाओं की है या हम जैसे गृहस्थों की? इस बारे में उन्हें कुछ निवेदन करो तो बिफर पड़ते हैं, कहते हैं- तुम सच्चे कबीरपंथी नही हो... या कहते हैं- कबीरपंथ खाला का घर नाही, सीस उतारे हाथ धरे...उन साधु बाबा को सादर विदा कर दिया गया...।
साहब तो प्यार है, मुस्कान है, गीत है, संगीत है, आत्मा की प्यास है, तृप्ति है, प्रकृति की अनुपम सुंदरता है, ओज है, तेज है, प्रकाश है, पवित्रता है, दया, करूणा, क्षमा, त्याग है, देह के पार का अहसास है...

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

पूर्णता...💐💐💐

दूर तक अकेलेपन का अहसास फैला हुआ है। उस एकाकीपन में भी सुकुनियत है, सुंदरता है, संगीत है। इस अहसास में न कुछ पाने की चाह है, न ही कुछ खोने का गम। न कुछ कम है, और न ही कुछ ज्यादा है। एक पूर्णता का आभास है, अपने होने का अहसास है।

धड़कनें अपनी गति से निर्बाध चल रही है, सांसे भी अपनी लय में है, निःअक्षर से शब्द रूपी नाम की तारी जुड़ी हुई है। आसपास के कोलाहल के बावजूद भीतर शांति है, स्निग्धता है, शीतलता है, एक रस है, नाम की तन्मयता और खुमारी है।

जीवन के कर्म इंद्रियों पर गिद्ध नजर रखे, हर पल चौकस, नाम के हर बून्द का रसपान करते हुए वो अपने जिंदगी का रूपांतरण करने में लगा है। अपने प्रियतम से, अपने साहब से मिलने को आतुर है, मिलन की बेला भी करीब है, कई जिंदगी बीत गई इंतजार में, प्रतीक्षा की घड़ी बहुत लंबी है। इस बार टूटी फूटी बंदगी तो करना ही है, चूकना बिल्कुल भी नही है। काम जारी है, अस्तित्व पर फैले कचरे की सफ़ाई जारी है, स्मरण जारी है...

तन थिर मन थिर वचन थिर
सुरति निरति थिर होय...

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साहब की सहजता...💐

जिंदगी की राह बड़ी कठिन है। यहाँ हर चीज, हर बात के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। जिंदगी में सहज और सुलभ कुछ भी नही होता। अध्यात्म की राह बहुत ज्यादा कठिन और दुर्गम कहा जाता है। इस राह दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों से बचने के उपाय खोजते हुए लोग, हारे हुए लोग चले आते हैं, मोक्ष की इच्छा लिए मुमुक्षु भी आते हैं।
चार पलों की जिंदगी, किसी सपने की तरह है। जो चाहिए वो मिलता नही, जो मिलता है उसकी जरूरत नही। कोई सबकुछ पाने को बेताब, तो कोई सबकुछ लुटाने को तैयार। वर्तमान से कोई खुश नही।
साहब का सहजता का नियम ऐसे में बड़ा काम आता है, सबको जीवन में सहज होकर रहना, सहज होकर जीना सिखाता है। सहजता को व्यवहार में धारण करने से जीवन में संतोष, धैर्य और सुकून बढ़ता है, शान्ति का बोध होता है, व्यवहार में संयमितता आती है, समर्पण का भाव आता है, मनोबल बढ़ता है, स्वीकार करने का भाव जागृत होता है। व्यग्रता, चिंता, बेचैनी, डिप्रेशन, अनिद्रा, तनाव आदि का अंत होता है तथा विपरीत परिस्थितियों से शान्तिपूर्ण ढंग से निपटने में सहायता मिलती है। दिनभर मन प्रफुल्लित और उत्साहित रहता है। साहब कहते हैं:-
संतो सहज समाधि भली... आंख न मूंदुं कान न रून्धु, काया कष्ट न धारूँ,
खुले नैन हस हस कर देखूं, सुन्दर रूप निहारूं।
कहूँ सो नाम सुनु सो सुमिरन, जो कुछ करूँ सो सेवा,
जब सोवूं तब करूँ दंडवत, पूजूं और न देवा।
शब्द निरंतर मनुआ लागा, मलिन वासना त्यागी,
सोवत जागत उठत बैठत, ऐसी तारी लागी।
संतो सहज समाधि भली...

सांसो का संगीत...💐



नाम की खुशबू का एक झोंका आया। प्रतिपल उस खुशबू की आगोश में जिंदगी का पलना, आगे बढ़ना, अपने ही धड़कनों और सांसों का लयबद्ध संगीत सुनना, उसी नाम की खुशबू को हृदय में भरकर जिंदगी का पग लेना, रात और दिन, समय का पल पल, उसी खुमारी में लीन रहना। कुछ ही समय में जीवन का हर कोना उस खुशबू की महक से सराबोर हो उठा। अनेक रंगों से जिंदगी रंग गयी।

पीछे की सपाट बंजर जिंदगी देखता रहा, और शून्य आकाश में नाम की दिव्य ज्योति से जगमगाये हुए पथ पर आगे बढ़ता रहा।

नाम के प्रकाश से आलोकित और अपने होने के अहसास से भरा दिव्य जीवन अपने परमात्मा से मिलन की प्रतीक्षा में बिछा रहा...💐

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

रास्ते के फूल...💐

खिली चांदनी रातों की मौन लम्हें कहती रही कि सुबह ही न हो, परंतु गर्मी की उस रात चांद को घर जाने की जल्दी थी। किसी जोर की आवाज से चौककर रात भर हड़बड़ाए छत पर अकेले बैठे रहा। पहली दफे चांद के साथ प्रकृति में भी अपने साहब, अपने परमात्मा की लालिमायुक्त छवि देख रहा था। जो अंदर था वही बाहर था, और जो बाहर था वही अंदर भी दिखता था। दृष्टिकोण और दृष्टि दोनों का दायरा बहुत विस्तृत हो चुका था।

नाम के संगीत में डूबा हर पल उसे और गहरे ले जाते थे। अजीब नशा था, कोई परछाई थी, लगता कोई तो है जो देखता है, सुनता है, साथ साथ चलता है, पीछा करता है, प्रश्नों के त्वरित उत्तर भी देता है। पीछा छुड़ाने के सारे उपक्रम फेल हो चुके थे। वो अवाक था, कुछ सूझता ही नही था, उस अजनबी अहसास से बरसों तक उसकी नींदे उड़ी रही।
"शरीर को यंत्र बनाने" का मतलब उस रात समझा था। उस अहसास से जीवन अब भी लबालब है। अब और गहरे उतरना है, और भी रास्ते तय करना है, और भी पड़ाव पार करना है।

मोको कहाँ ढूँढ़े बन्दे मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल में, ना मैं मस्जिद में, न काबे-कैलाश में।
खोजि होय तो तुरंत मिलिहौं, पल भर के तलाश में। 
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब साँसन की सांस में।

...

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

वो ठूंठ खड़ा है...💐

अरसे से वो ठूठ की तरह खड़ा है। लोग कहते हैं वो जिंदा है। जब शब्द मौन हो जाते हैं, तब उसकी अभिव्यक्ति होती है। अस्तित्व बोलता है, उसे चलाता और नियंत्रित करता है।
उस शिखर पर वो अकेले ही है, लोग कहते हैं वहां अदभुत आनंद है। लेकिन दर्द उसका पीछा नही छोड़ता। जमीन में रह रहे लोगों की चीख पुकार शिखर की ऊंचाई में ज्यादा अच्छे से सुनाई देती है।

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा एक व्यक्ति, मेले की भीड़ में सामान बेचकर दो वक्त की रोटी जुटाता रिश्तेदार, एक लड़की विवाह के बंधन में बंधने के सपने संजोए, बेटे के घर लौटने के इंतेजार में खड़ी उसकी माँ, पड़ोस की गाय की दुर्घटना में मौत, किसी नए जीवन के पनपने की आवाज... शिखर से वो सुनता, देखता और रोता है।
सच में वो ठूठ ही है, लेकिन लोग कहते हैं वो अभी जिंदा है।

प्रार्थना के वो पल...💐

वो दिन बड़े उत्साह से भरे होते थे, रिश्तेदारों और गाँव के लोगों का समूह अक्सर एक घर में इकठ्ठा होता था। ऊंच, नीच, जाति बंधन, सम्प्रदाय, और उम्र की सीमाओं को तोड़कर सब एक दूसरे को साहेब बंदगी कहते। जिस घर मे वो सब ठहरते वो कच्चा जरूर था, लेकिन सबकी बोली मीठी थी, लोग भी मीठे ही हैं। महिलायें सोहर, मंगल गाती, सबके लिए नाम स्मरण के साथ खाना बनाती। अन्न का हर एक निवाला सत्यनाम के स्मरण के साथ ग्रहण किया जाता।
उस घर मे लोग साहब की वाणियों को जीने आते थे, साहब को महसूस करने आते थे। आरती, सुमिरन, ध्यान, भजन, सत्संग और प्रश्न उत्तरों का अंतहीन दौर चलता, न जाने कैसे लोग थे जो वापिस अपने घर लौटना ही नही चाहते थे। लोगों का वह समूह अदभुत आनंद और जोश से भरा होता था। ये सिलसिला कई कई दिनों तक चलता रहता।
उस घर के माहौल में गहरे अध्यात्म की अजीब सी खुशबू थी, महक थी, असीम दिव्यता थी, सुकून था, चेतनता थी, सबके हृदय में प्रेम की पराकाष्ठा थी। लोग प्रेमातुर रो पड़ते थे।
जिन्होंने हाथ पकड़कर दामाखेड़ा का रास्ता बताया, साथ चलाया, जागृति दी, जीवन को ज्ञान से पल्लवित किया, सबके आंसू पोछे, साहब को नस नस में जीने वाले कोनारी गांव के मनोहर साहब याद आते हैं, वो दिन, वो लोग याद आते हैं। उनके चरणों में फिर से जीने का मन करता है...

यादों के पन्ने...💐

वो सांवली सी लड़की जो बचपन में वादा करके गयी थी कि अगली बार गर्मियों की छुट्टियों में अपने शहर से बैट बॉल लेकर गांव आएगी, तब हम लोग खूब क्रिकेट खेलेंगे।

अगली गर्मियों की छुट्टियों में वो नही लौटी। लेकिन प्यार भरा गुलाबी पन्नों में मोगरे के ताजे फूलों की महक लिए हुए उसका पहला लव लेटर मिला। वो सातवीं कक्षा का प्यार था, अल्हड़ सी, नदी की धारा सी, ओस की हल्की फुहार सी, किसी खूबसूरत गीत की तरह...रजनी की तरह।

वो अच्छी लगती थी, सच्ची लगती थी। समय बीतता गया, रिश्ते प्रगाढ़ होते गए। शहर और गांव की दूरियां भी उनके रिश्ते को परवान चढ़ने से रोक नही पाई।

रंगीन कागज में लिखे वो लव लेटर करीब आठ बोरियों में भरे थे। उन पन्नों में छोटी छोटी खुशियां, भावनायें, सपनों की ऊँची उड़ान, और न बिछुड़ने का वादा था।
यादों के कुछ पन्ने...

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

बाहरी हवा...💐

वो कल फिर झोलाछाप बाबा के पास जा रहा है। उसकी पत्नी और परिवार के लोगों को लगता है कि उसे बाहरी हवा लगी है। उसके पास वेतन के पैसे बचते ही नहीं, सबेरे तो जेब में भरकर हरे नोट ले जाता है, लेकिन शाम को खाली हाथ लौटता है। पिछले दिनों बाबाजी ने जन्म कुंडली देखकर कहा था की दरिद्री योग है, इस दुर्योग को दूर करने के लिए गुप्त मत्रों का पचास हजार जाप कराना होगा, पूरे इक्कीस सौ एक रुपये उसे दक्षिणा भी देना होगा। फिर पैसे बचने शुरू हो जाएंगे, बैंक बैलेंस भी बढ़ेगा।
उसने सबेरे पत्नी से हर रोज की तरह झगड़ा मोल ले लिया और समझाया की किसी बाबा के झाड़फूंक और टोटकों से जिंदगी नही बदलती, जिंदगी बदलने के लिए जिंदगी में जागना होता है...। वो बड़बड़ाती रही, कहती रही- "और कैसे जागेंगे?" सुबह पांच बजे से तो जाग जाते हैं, नहा धोकर साहब का पाठ पूजा कर ही लेते हैं...।
आज शाम को भी उसने पहले की तरह अलमारी से 100 रुपये के कुछ नोट पत्नी से छुपाते हुए निकाले और मेकाहारा अस्पताल की ओर चल पड़ा। सामने मैला कुचैला कपड़ों से लिपटा एक जर्जर शरीर खड़ा था, "पहले से कैसे हो?" पूछते हुए को दो नोट उसे थमा दिया। बचे रुपयों से सब्जी भाजी लेकर घर आ गया।
वो कल बाबाजी के पास जाएगा, बाहरी हवा के इलाज के लिये...

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

जर्जर व्यवस्था...💐

शहर के बहुत बड़े अस्पताल में उस दिन भारी भीड़ थी। वो हड़बड़ाते हुए गया, जब किसी गरीब बच्चे के एडमिट होने की खबर उसे मिली। गार्डन की एक मूर्ति उस बच्चे के ऊपर गिर गयी थी। चार दिन तक डॉक्टर उसे ऑक्सीजन पर रखे रहे, बताया गया कि सिर में गहरी और गंभीर चोट लगी है, लेकिन बच्चे की सुधरते हुए स्थिति देखकर सबको लग रहा था कि उसे होश आ जाएगा। वो ठीक हो जाएगा।
पांचवें दिन जब वो सुबह अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि आक्सीजन की नली निकाल ली गयी है, और बच्चा अब नही रहा। कोई बड़ा आदमी अस्पताल में एडमिट किया गया है, आक्सीजन की और अतिरिक्त टंकी नही थी, अतः बच्चे की आक्सीजन नली निकालकर उस बड़े आदमी को लगा दिया गया था।
मजदूर पिता अवाक रो रहा था, लोग कह रहे थे उस बड़े आदमी की जान बच गई। थोड़ी देर बाद पता चला कि वो बड़ा आदमी नेताजी का "ख़ास आदमी" है।
(Lekhraj Sahu)
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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

परमात्मा की अभिव्यक्ति...💐

परमात्मा की अभिव्यक्ति की स्थिति में व्यक्ति सामान्य नही हो सकता। उस दिव्य सत्ता का स्पर्श होते ही अस्तित्व जाग उठता है। अकस्मात ही पूरे जीवन का परिवर्तन हो जाता है, मौन की गहनता में चेतनता का उदय होता है। उसी चेतनता के इर्द गिर्द ही उसके मनोभाव, विचार और जीवन ढलने लगता है। उस सर्वदृष्टा, सर्व ज्ञाता का अंश उसके अस्तित्व में समा जाता है। तब उस सामान्य से व्यक्ति में महामानव का उदय होता है।
जब वो आंखे खोलकर बाहर देखता तो उसे हर कहीं अपना ही रूप और अंश दिखाई पड़ता है। हर दुख उसे अपनी पीड़ा लगती है, जीवन और प्रकृति के हर रूप में उसे अपना ही स्वरूप नजर आता है। अपने और पराये का भाव समाप्त होने लगता है। पूरे जीव जगत को अपना परिवार स्वीकार कर लेता है। उस विराट को अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। वह मौन बोल उठता है-
मेरा मुझमे कुछ नही, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता क्या लागत है मोर।।
सप्रेम साहेब बंदगी साहेब...


(Lekhraj Sahu)
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टुक टुक होए गिरे धरणी पर...💐

टुक टुक होए गिरे धरणी पर...
आज उन्होंने फिर से ढाई इंच अंदर हृदय की बात ढाई अक्षरों में कही। अच्छा लगता है जब सर्वोच्च सत्ता आम लोगों के बीच बैठकर, आम लोगों को जीने का रास्ता बताते हैं। अच्छा लगता जब वो हँसते हैं, मुस्कुराते हैं, लोगों की बड़ी समस्याओं का हल ढाई अक्षरों में कह देते हैं।

उनकी बात सुनकर जीवन का कोना कोना महक जाता है, सारी थकान, सारी पीड़ा, सारा दुख दूर हो जाता है, सारे भ्रम, दूर हो जाते हैं। जब वो कुछ कहते हैं तो फूल झरता है, रेगिस्तान में तपती जिंदगी को उनकी अमृत बून्द मिलती है, इतिहास बनता है, धरती और आसमान उन्हें सुनता है।
मन और आत्मा को फिर भी तृप्ति नही मिलती। लगता है वो सदा यूँ ही सामने रहें, कहते रहें, कहते ही रहें... और जिंदगी बीत जाए...
(Lekhraj Sahu)
lekhrajsahu@gmail.com

मुक्ति...💐

खोलबाहरीन काकी की उमर करीब 45 की थी, वो गांव के आंगनबाड़ी में काम करती थी। उसे गम्भीर रोग हो गया, शरीर का ऊपरी हिस्सा ही चलता था, दोनों हाथ और कमर से नीचे का हिस्सा लकवा ग्रस्त हो गया था। तीन शादीशुदा बेटियाँ अपने ससुराल में रहती थी। कई बरस बीत गए, काकी खटिया में पड़ी भूख से कराहती, रोती, और चिल्लाती रहती। उसका सारा दैनिक क्रिया बिस्तर पर ही होता था।
काका ने सारी पूँजी जीवन संगिनी के दवा दारू में लगा दिया। पत्नि का दर्द देखा नही जाता था, वो टुट चुका था। बाहर से संकरी लगाकर रोटी और दवाई के जुगाड़ में दिनभर घर से बाहर रहता।
अक्सर काकी बिलखते हुए उससे कहती- "मुझे मुक्ति दे दो"। एक रात उसने काकी को जगाया, प्यार से उसके सिर को गोद मे उठाया, टपकते आंसूओं और सिसकियों को पोछते और छुपाते हुए कहा- "खोलबाहरीन आज तुम्हें दवाई पिलाना भूल गया, ले दवाई पी ले।" काकी को दवाई पिला दी, और कान में चुपके से कह दिया- "मुक्ति दे दिया तुम्हें खोलबाहरीन, मुक्ति दे दिया...।
सुबह तक पूरे गाँव मे बात फैल गयी थी कि खोलबाहरीन काकी अब न रही। काका और तीनों बेटियाँ खुश थी कि काकी को मुक्ति मिल गई, पर काकी की आत्मा कह रही थी कि उसके परिवार को मुक्ति मिल गई...
(Lekhraj Sahu)
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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

नाम का दीपक...💐

खामोशी से सांसो में घुलती नाम की खुमारी बढ़ती रही, अंदर ही अंदर पलती रही। अंधेरे से सुरंग में उसे किसी रौशनी की तलाश थी, जिंदगी की तलाश थी। बरसों पहले अपने अंतरतम में कलश रखकर दीया जलाया था। उसकी रौशनी से उसे मार्ग दिखता रहा, वो आगे बढ़ता रहा। एक दिन दीये की लौ धीमी हो गई, बुझने को आई... और बुझ गयी। अंधेरे में उसे दूर तक कोई नजर नही आता, सिर्फ काले काले से कुछ अजीब आकृति वाली छवियाँ थी, जिसे पीड़ा, दर्द, दुख, बेबसी, लाचारी कहते हैं।
एक दिन अकस्मात उस अंधेरे में जादू हुआ, दीया फिर से जल उठा, कोई फरिश्ता कहीं से प्रगट हुआ, जिसे लोग संत कहते हैं। उस फरिश्ते ने हाथ पकड़कर अंधेरे से सुरंग के बाहर निकाल लिया। रौशनी के स्पर्श से काली आकृतियां हट चुकी थी। प्रकाशित और खुले आकाश के नीचे आकर उसकी तलाश पूरी हो गई। प्रतीक्षा की वो घड़ी जिंदगी जितनी लम्बी थी।
कलशे पर रखा दीया अब भी जल रहा है, उसे अब बड़ी, और भी अंधेरी, और भी ज्यादा गहरी सुरंग पार करनी है...
(Lekhraj Sahu)
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शून्य शिखर...💐

शून्यता के शिखर पर बैठा व्यक्ति सबकुछ समर्पित कर चुका होता है। शून्य के जितने अंदर वह जाता है, और भी बड़े शून्य आकाश का उसे आभास होता है। उसकी यात्रा समाप्त ही नही होती, एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा फिर पाँचवा शून्य शिखर... यह क्रम चलते रहता है। दरअसल वह शून्यता चेतनता का चरम होता है।
शून्य शिखर पर वह अतीन्द्रिय और दिव्य सत्ता के स्पर्श को महसूस कर रहा होता है और उसी के अनुसार उसके सारे कार्य और जीवनशैली निर्धारित हो जाते हैं। उस शून्य चेतनता की अवस्था में वह सामान्य जीव जगत से संतुलन बनाकर जीने की बहुत कोशिश करता है, लेकिन असफल ही रहता है। वो इस जीव जगत में सबकी भाषा समझता है, सबको समझता है, लेकिन उसकी गहराई और शून्यता किसी सामान्य मानव के कल्पना से भी परे की बात होती है।
अनंत से संबंध जुड़ते ही उसे अंनत को देखने वाली आंखे और अनंत की आवाज सुनने वाले कान मिलते हैं। वह उस परमात्मा को, उस अनंत को अपने जीवन की डोर सौंप देता है। उसका जीवन साहब की मस्ती और खुमारी से ओतप्रोत हो जाता है। तब उसे साहब की लालिमा चहुँ ओर नजर आता है, और वह उसी मदहोशी में सर्वदा लीन रहना चाहता है...
(Lekhraj Sahu)
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पुर्णिमा...💐

आज माघपूर्णिमा है। सुबह से ही रसोई में बर्तन पटकने की आवाज आ रही है। आज रसोई की तरफ से आती कुलबुलाहट की आवाज से बीपी अलसुबह नौ बजे से ही बढ़ा हुआ है। घर में कुछ लोग उपवास पर हैं, कुछ नही खाएंगे। लेकिन शाम को खीर बनेगी, अन्य दिनों की अपेक्षा रसोई में ज्यादा अच्छा बनेगा।
इधर वो बेचारा घबराया हुआ है, महीने का आख़री दिन है, पगार कब का खत्म हो चुका है। महीने की पगार को बिटिया के स्कूल, घर का किराया, खुद की दवाइयाँ, पत्नी की दवाइयाँ और इलाज, दहेज में मिले फटफटी के पेट्रोल, जिओ सिम के रिचार्ज ने पलक झपकते ही डकार लिया। पड़ोस के भलमनसाहत दुकानदार ने उधार किराने का सामान दिया दे दिया है।
दिनभर दोनों पति पत्नी कई बातों को लेकर खूब लड़े। शाम तक दोनों तमतमाए हुए थे। पत्नी ने आरती जलाई, दोनों ने गले फाड़कर आरती गायी-
आरती सत्यनाम की कीजे, तन मन धन ही न्यौछावर कीजे।
उंगलियां चाटकर दोनों ने बिना दूध की खीर खाई। उसकी हर पूर्णिमा कुछ ऐसे ही बीतती है। आम गृहस्थी की किचकिच और समस्याएं ऐसी की जीवन बीत गया पूर्णिमा मनाते और उपवास करते हुए, फिर भी उसके जीवन मे उजास नही आया।
लेकिन उसने पूर्णिमा मना ही लिया...
(Lekhraj Sahu)
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नई सुबह...💐

किसी उजाले की खोज में निकला था, सुबह होने की प्रतीक्षा थी, ओस की बूंदों से नहाया हरा घास का मैदान सामने था, वातावरण में धुंध फैला था, आसपास के पेड़ पौधे अस्पष्ट से थे, पर लक्ष्य एकदम साफ दिख रहा था।

घास पर जैसे ही पैर रखे, ठंड उसके हड्डियों तक पहुँच गया। जीने की तड़प, एक सांस ज्यादा लेने की जिद थी, कुछ दिन और जीना चाहता था। दर्द से कराहता दौड़ पड़ा।

मौत की छुअन से लौटा वह इंसान जिंदगी का मतलब समझ चुका था। वो बड़ी जल्दी में है, बहुत सारे काम बाकी है, अब वो दौड़ता है, खूब दौड़ता है। एक सांस में बहुत सारे अधूरे काम कर लेना चाहता है। रोज परमात्मा को शुक्रिया कहता है एक दिन और देने के लिए, चंद सांसे और देने के लिए।
शुक्रिया साहब...

(Lekhraj Sahu)
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अनुत्तरित प्रश्न...

गर्मियों की चाँदनी रातों में अक्सर आँगन में लेटे हुए गहरे आसमान की ओर ताकता और ओरछोर नापने की कोशिश करता। टिमटिमाते सितारों को जोड़कर अजीब अजीब सी आकृतियाँ बनाता, सोचता जब धरती गोल है और घूम रही है तो हम गिरते क्यों नही? धरती और आकाश की रचना करने वाला आखिर कौन है? रहता कहाँ है? न जाने क्यों गहरे काले आसमान में वो देवी देवताओं और साहब के पदचिन्ह खोजा करता।
पतली चादर में दुबके कनखियों से चारों ओर देखता, कहता कि आज वो आएगा तो उसे देख ही लेगा कि वो कौन है जो रात को दिन और दिन को रात बनाता है? वो रातभर अपने आँगन से चांद का पीछा किया करता।
कल वो अपने दादा से दिन और रात बनाने वाले का पता पूछता था, आज उसकी बेटी दिन और रात बनाने वाले का पता उससे पूछती है। प्रश्न का उत्तर न कल था और न आज है, कई प्रश्न अनुत्तरित हैं...
(Lekhraj Sahu)
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कोई तो है...💐

कोई तो है उस झीने आवरण के पीछे, जो आवाज देता है, पुकारता है, जगाता है, राह दिखाता है, हल्के से मधुर स्पर्श के साथ अपने आगोश में ले लेता है। कुछ तो ऐसा है जो शब्दों और भावों से भी अछूता है। कोई तो है जो अब तक अनकहा सा है, अनसुना सा है। उस आवरण की चादर जिंदगी पर फैली हुई सी है।
कुछ मीठी सी बात है, कुछ दर्द भी है, कुछ बेचैनी है, कुछ मदहोशी है, कुछ ख़ामोशी भरा गीत है, कोलाहल के बीच भी अनोखा सुकून है, सांसो के अनवरत गीत का अजब संतुलन है।
(Lekhraj Sahu)
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स्वयं का बोध...💐

कहते हैं जीवन के कर्म इतने गंदे हैं की उस दिव्य सत्ता के नाम का स्मरण करने योग्य भी नही हैं, उनके रूप का दर्शन करने योग्य भी नहीं हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ गलत कर्मों और विचारों में लिप्त है। मन है कि उनके रूप और नाम पर ठहरता ही नही है। उनसे प्रेम हो भी तो कैसे? मन की मलिनता इतनी ज्यादा और गहरी है की इतना भी ज्ञान और सुध नही है कि उस मलिनता को समझ भी पाएं, उसका बोध भी हो। अस्तित्व पर गलत कर्मों, अनुचित विचारों की बेल फैल गयी है। जब उस मलिनता का बोध होगा, तभी तो कोई सुमिरन ध्यान के साबून से उसे धोने का उपाय करें।

साहब का शरण ही वह उपाय है, साहब की वाणी और सत्संग ही वो उपाय है, जिससे अपने गलत कर्मों का बोध होता है, मलिनता का बोध होता है, अस्तित्व पर फैले कुविचारों का बोध होता है।

बोध होते ही जीवन का जागरण होता है, अस्तित्व का जागरण होता है। मानव जीवन के दायित्वों और कर्तव्यों का अहसास होता है। जब मन की मलिनता समाप्त होती है, सुमिरन का तार सुरति से जुड़ता है तब परमात्मा आकर खुद ही हाथ थाम लेते हैं। उनकी ओर एक कदम बढ़ाने से वो खुद की ओर चार कदम बढ़ाते हैं।

साईं से सब होत है, बंदे से कछु नाही...💐


(Lekhraj Sahu)
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साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...