2008 में मैं रायपुर के मेकाहारा अस्पताल में भर्ती था। डॉ. मनोज साहू, मनोरोग विशेषज्ञ मेरा इलाज कर रहे थे। मैंने उनसे एक घण्टे के लिए अस्पताल से बाहर जाने की परमिशन मांगी। हाथ में ड्रीप चढ़ाने वाली सुई लगी हुई थी। मैं उसी हालत में पत्नी के साथ ऑटो रिक्शा पकड़ कर कटोरा तालाब रायपुर साहब से मिलने निकल पड़ा।
वहाँ एक द्वारपाल मिले। वो मुझे देखते ही समझ गए कि अस्पताल से आया है। मैंने उनसे साहब से मिलने की इक्छा जताई। उन्होंने आंखें ततेरते हुए वापिस जाने को कहा। लेकिन मैं जिद पर अड़ा रहा। वे मुझे झल्लाते हुए बोले कि जब बीमार हो, तो ऐसी हालत में साहब के पास मत जाओ, साहब को भी बीमारी लग सकती है। चाहो तो पान परवाना और प्रसाद तुम्हें दे सकता हूँ।
लेकिन मैं भी अहंकारवश जिद पर अड़ा रहा कि मेरे साहब हैं, मुझे उनसे मिलने का अधिकार है, और साहब की प्रतीक्षा में वहीं बैठ गया। उस दिन डॉ. भानुप्रताप साहब के दर्शन हुए, बंदगी हुई, प्रसाद मिला। लेकिन उस द्वारपाल के लिए मन में चिढ़ हो गई, क्योंकि उन्होंने मुझे साहब से मिलने से रोका था।
समय बीतने के बाद जब उस द्वारपाल के बारे में विचार उठे तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। साहब और साहब के पूरे परिवार का जीवन अनमोल हैं, अमूल्य है। वो सारे जगत की पीड़ा हरने ही तो हम सबके बीच इस धरा पर अवतरित हैं। ऐसे में साहब अथवा साहब के परिवार पर हमारी वजह से किसी तरह का संकट न आ जाए, इसका हमें ध्यान रखना चाहिए।
जब हम उनके चरणों तक जाएं तो कम से कम नहा धोकर और साफ सुथरे तरीके से जाएं, सलीके से जाएं, बीमारी लेकर न जाएं, अगर बीमारी लेकर जाना भी पड़े तो निश्चित दूरी बनाए रखें। साहब से फरियाद करने बहुत गंभीर और जीर्णशीर्ण अवस्था में लोग आते हैं।
अब तक मैं साहब के द्वारपालों से बहुत चिढ़ता रहा हूँ, उनको लेकर मेरे अनुभव कभी अच्छे नहीं रहे हैं। लेकिन देर से ही सही उस द्वारपाल/संत के लिए हृदय में आज प्रेम उमड़ ही पड़ा।
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