मैं कई बार सेवा करने की इक्छा लेकर आश्रम जाता हूँ। सोचता हूँ कि आज सभी संतो के लिए भोजन प्रसाद बनाऊंगा, सारे बर्तन साफ करूँगा, आश्रम की सफाई कर लूंगा, शारीरिक कष्टों से गुजर रहे संतों को डॉक्टर के पास ले जाऊंगा। उन्हें आराम करने को कहूंगा। कम से कम साल में एक बार उन्हें क्षमता अनुसार द्रव्य भेंट करूँगा।
लेकिन ऐसा कभी हो ही नहीं सका। उनकी सेवा कभी कर ही नहीं सका। बल्कि जब भी आश्रम जाता हूँ संतजनों से अपनी सेवा करवा लेता हूँ। वृद्धावस्था में भी वो खुद भूख सहकर मेरे लिए भोजन प्रसाद बनाते हैं, कंपकपाते हाथों से मेरे जूठे उठाते हैं, मेरे द्वारा फैलाए कचरे को साफ करते हैं। अपने दुख छिपाकर मुझसे मेरी खैरियत पूछते हैं, मुझे आश्रम में किसी चीज की कमी न हो इसका ध्यान रखते हैं।
वहाँ जाकर, उनके कठोर जीवन को करीब से झांकने पर अहसास होता है उन्हें लोग ऐसे ही संत नहीं कहते, ऐसे ही उन्हें संतों की उपमा नहीं देते। उनका जीवन वाकई हम जैसे सामान्य और भैतिकवादी लोगों की सेवा में न्यौछावर है, वो जनकल्याण में सतत निशदिन लगे रहते हैं और शायद उनकी ही वजह से वर्तमान में "सेवा" शब्द की सार्थकता है।
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