किसी विषय पर लोगों की राय, विचार, सोचने समझने का तरीका अलग अलग होता है। कई बार मेरा लेख मेरे फेसबुक मित्रों को पसंद आता है तो कई बार आलोचना भी होती है।
मेरी पत्नी को साहब से संबंधित मेरे लेख, विचार और भावनाएं बिल्कुल पसंद नहीं आते। उसका कहना है कि गुरु और शिष्य की अपनी मर्यादाएं होती है, और मैं मर्यादा तोड़कर जो मन में विचार आते हैं उन्हें लिख दिया करता हूँ। दरअसल मेरा मानना भी यही है कि गुरु और शिष्य के बीच मर्यादा होनी ही चाहिए, लेकिन मैं भक्त और परमात्मा के बीच की मर्यादा के विरुद्ध हूँ।
चूंकि साहब ही मेरे गुरु हैं और साहब ही मेरे परमात्मा भी हैं। जब उन्हें गुरु के रूप में लिखता हूँ तो मर्यादा का ध्यान रखता हूँ। लेकिन जब उन्हें परमात्मा के रूप में लिखता हूँ तो मर्यादा तोड़कर किसी मित्र, किसी दोस्त, किसी पारिवारिक सदस्य समझकर दिल की सारी भड़ास निकाल देता हूँ।
मुझे नहीं पता कि साहब से संबंधित मेरे लेखों को आप सब किस रूप में समझते हैं। इस बारे में आप सबसे मार्गदर्शन की उम्मीद करता हूँ।
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