गले में कंठी के साथ साथ छुपाकर दिखाई न देने वाला ताबीज बांह में भी धारण किया हुआ है। रोज संध्यापाठ तो करता ही है, साथ ही साथ मन ही मन सबसे छुपाकर महामृत्युंजय का जाप भी करता है। दिवाली के दिन पहले साहब की आरती गाता है फिर महालक्ष्मी का पाठ भी करता है। अच्छी बात है कि कम से कम तेरी उपासना पद्धति में हिंसा तो नहीं, वरना कई तो कंठी धारण करने के बाद भी मासूम जानवरों की बलि देते हैं।
जब मुसीबतें आती है तो आदमी क्या क्या नहीं करता। बेशक प्राण बचाने के लिए सबकुछ करो। लेकिन पहले अपने गुरु, अपने सद्गुरु को तो टटोल लो, उनके चरणामृत, उनके प्रसाद पर तो दृढ़ विश्वास करके देख लो।
अक्सर लोग भौतिक विकास के लिए अन्य उपासना पद्धति की ओर आकृष्ट होते हैं, और मुक्ति के लिए कबीरपंथ का सहारा लेते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें