आज पूर्णिमा व्रत है। घर में बड़े बुजुर्ग उपवास रखे हैं, सुबह से कुछ नहीं खाए हैं। कहते हैं आज की तिथि बड़ी पावन होती है। जो भी श्रद्धापूर्वक पूर्णिमा व्रत मनाता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती है।
मेरे मन में बचपन से ही पूर्णिमा व्रत को लेकर बड़ी उत्सुकता रही है। उस दिन घर में सुबह चार बजे से ही चहल पहल शुरू हो जाती थी। महिलाएं घर के आंगन को गोबर से लिपती थीं, चौक पूरती थीं, नारियल प्रसाद और आरती तैयार करती थीं, बाड़ी से ताजी सब्जियां लाई जाती थी, सब लोग सुबह से स्नान करके तैयार हो जाते थे। तब पूर्णिमा को किसी उत्सव की तरह मनाया करते थे।
हर पूर्णिमा को बारी बारी से सबके घरों में ग्रंथों का पठन पाठन और भजन सत्संग होता। मोटे मोटे ग्रंथ निकाले जाते। बड़े बुजुर्ग और श्रद्धालुजन पूनो महात्म्य का पाठ करते, सारा दिन घर में भजन और सत्संग होता। घर आंगन आध्यात्मिक सुगंध से सुवासित रहता।
शाम को प्रसाद वितरण होता, ततपश्चात सब लोग एक साथ बैठकर नाना प्रकार के व्यजनों का रसास्वादन करते। भोजन प्रसाद के बाद रात भर फिर सत्संग होता, साहब की बातें होती।
बचपन की पूर्णिमा व्रत की अनुभूतियाँ और दृश्य मन में गहरी समाई हुई है, जिन्हें याद करता हूँ। किसी पूर्णिमा पर मैंने भी कलशे पर एक आरती जलाई थी, जो आज भी प्रज्ज्वलित है...
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