आँखे मूंदे, पद्मासन में बैठे, मन को विचार शून्य करने की कोशिशें होती रही, बारी बारी से नाक-कान बंदकर प्राणायाम और ध्यान की कोशिशें होती रही, संध्या पाठ के अक्षरों को अर्थ देने की कोशिशें होती रही। ग्रंथो और शास्त्रों के खाक छानते रहे, विद्वानों के चरण पखारते रहे। यहां वहां "सार शब्द" नामक चमत्कारी बूटी ढूंढ़ते रहे।
मंदिरों के चक्कर लगाए, बाबाओं के भभूत खाए, बरसों बीत गए, कुछ नहीं हुआ, भगवान नहीं दिखे, "सार शब्द" नहीं मिला।
अब जिंदगी ढलान पर आ चुकी है, कमर झुक गई है, चेहरे पर झुर्रियां नजर आती है। लेकिन उनकी खोज आज भी बदस्तूर जारी है। शब्दों के ऑपरेशन, शब्दों के पोस्टमार्टम और ज्ञान का पारख अभी भी जारी है। पता नहीं कब पारख होगा, कब सार शब्द मिलेगा, कब मोक्ष मिलेगा, शब्दों को परखते हुए और कितनी जिंदगी गुजारेगा?