साहब को एकटक, एकसार ताकता ही रहा। घंटो बीत गए, कई दिन बीत गए, कई रातें बीत गई। दृढ़ निश्चय था- तस्वीर से बाहर निकलकर साहब बात करेंगे तभी चैन की सांस लूंगा।
अगरबत्ती और दीपक जलाया, कलशे की स्थापना की, पान, सुपारी, नारियल, लौंग, इलायची आदि मंगाया। स्वासों में नाम की माला फेरते सफर पर निकल गया।
एक दिन वो तस्वीर से बाहर निकल ही आये, मैजिक हो गया...। कमरे में आकाशवाणी और दूरदर्शन का प्रसारण हो रहा था। जिस रास्ते वो चला था, उस रास्ते पर हर पग परीक्षा होती है। सूक्ष्मता से हर पोल की, हर आवरण की, हर दुर्गुण और हर सगुण की, दसों इंद्रियों की, सिर अलग करके चरणों मे धर देने के हिम्मत की, अहंकार की, चरम समर्पण की परीक्षा होती है।
उस रास्ते में "मैं" खो गया, अब बस "वो ही वो" हैं।