मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

साहब का आगमन...💐

मंगल गान करती महिलाओं का समूह, साथ चलते गाँव के लोग, उनका आदर सहित स्वागत करते हैं। कौतूहल से निहारती गाँव की पनिहारिनें, सम्मान में झुकते ग्रामीणों के सिर, हाथ जोड़े भाव विह्वल लोग उस गांव के वातावरण में भक्ति का रस घोलते हैं। हर कोई चाहता है कि उनके आँगन में भी उस तेजोमयी, प्रकाश पुंज के चरण पड़े, जिनकी जन्मों से प्रतीक्षा थी।

सफेद लिबास में उनका शांत, शीतल, ओजस्वी चेहरा और भी सुकूनदायक लगता है। गाँव में उनके दर्शन के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा है, सबके लिए नाना प्रकार के भोजन पकवान बन रहे हैं, लोग खुशियाँ मना रहे हैं।

थोड़ी दूर एक छोटी सी बच्ची पिता के काँधे पर बैठे विशाल जनसमुदाय की तरफ उंगली का इशारा करते हुए, उत्साहित भाव से अपने पिता से कहती है-

पापा-पापा, वो रहे हमारे साहब..वो रहे। मैंने उन्हें देख लिया... उन्हें देख लिया। वो दोनों हाथ जोड़कर साहब को बंदगी करती है, साहेब बंदगी कहती है...। उस गाँव की पावन धरा पर साहब का आगमन हो चुका है।

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रविवार, 14 अक्तूबर 2018

गुरु, शिष्य और परमात्मा...💐

कहते हैं परमात्मा खुद के अंदर ही हैं। बस अपने भीतर ढाई इंच उतरकर हृदय के पट खोल लो, उनका रूप निहार लो, वो खुद से अभिन्न हैं।

लेकिन वो कैसे अभिन्न हो सकते हैं? परमात्मा की अनुभूति तो हिमालय की ऊंचाई है, सागर की अतल गहराई है। एक साधारण मानव उनके साथ कैसे एकमेव हो सकता है, कैसे अभिन्न हो सकता है? उनकी थाह तो इंसानी इन्द्रियों से परे है। हाँ, ये जरूर हो सकता है कि स्वयं के अस्तित्व के भीतर उतरकर, झीने आवरण का परदा उठाकर सिर्फ उनकी झलक देख सकें।

जिनकी आवाज सुनी जाती है, जो इशारे में अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं, जो अनहद की बात बताते हैं, वो तो गुरु हैं, साहब हैं। फिर व्यक्ति गुरु से भी कैसे अभिन्न हो सकता हैं। गुरु के समकक्ष भी तो शिष्य कभी नहीं हो सकता। गुरु की महिमा, गुरु की ऊंचाई, गुरु के गुरुत्व का आंकलन शिष्य कर ही नहीं सकता।

हाँ, गुरु और परमात्मा अभिन्न जरूर हो सकते हैं, लेकिन एक साधारण मानव, एक अदना शिष्य न तो कभी गुरु से और न ही परमात्मा से अभिन्न हो सकता।

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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

गाँव की सुबह...💐

गाँव की अलमस्त सुबह, ब्रम्हमुहूर्त का समय, ओस की बूंदों से नहाई धरती, बीती रात की विदाई और नए सवेरे के स्वागत की तैयारी। ठंड से ठिठुरते दादाजी, चादर लपेटे, बिस्तर पर बैठे, भजन के मखमली और शीतल स्पर्श के साथ आवाज देकर गाँव के बाशिंदों को जगाते हैं और साहब का अमर संदेश सुनाते हैं:-

"क्या सोया उठ जाग मन मेरा,भई भजन का बेरा रे।
रंगमहल तेरा पडा रहेगा, जंगल होगा डेरा रे।

सौदागर सौदा को आया, हो गया रैन बसेरा रे।
कंकर चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा रे।

ना घर तेरा ना घर मेरा, चिङिया रैन बसेरा रे।
अजावन का सुमिरण कर लें, शब्द स्वरूपी नामा रे।

भंवर गुफ़ा से अमृत चुवे, पीवे सन्त सुजाना रे।
अजावन वे अमर पुरुष हैं, जावन सब संसारा रे।

जो जावन का सुमिरन करिहै, पडे चौरासी धारा रे।
अमरलोक से आया बन्दे, फिर अमरापुरु जाना रे।

कहे कबीर सुनो भाई साधो, ऐसी लगन लगाना रे।
क्या सोया उठ जाग मन मेरा, भई भजन की बेरा रे।"

अब रात बीत चुकी है। नया सूरज उगता है, ज्ञान के प्रकाश से अंतर्मन का अंधेरा दूर होता है। नूतन उम्मीदों के साथ जीवन का जागरण होता है। दादाजी साँसों को टटोलते हैं, साहब के कुछ नाम बुदबुदाते हैं, और धरती पर पग रखकर दिन की शुरुआत करते हैं...

जो स्वर चले प्रातः संचारी, सो पग धरे उठो संभारि।
दिवस समस्त हरषे बीते, जहां जाए तहाँ कारज जीते।।
भूमि में पग दीजिए, सुनो संत मतधीर।
कर जोरि बिनती करूँ, दर्शन देहू साहब कबीर।।

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निःशब्द...💐

कहते हैं कबीरपंथ में निःशब्द ही सबकुछ देने की परंपरा रही है। पंथ श्री गृन्धमुनि नाम साहब ने पंथ श्री प्रकाशमुनि नाम साहब और डॉ. भानुप्रताप गोस्वामी साहब को गद्दी पर बिठाते हुए निःशब्द ही अपनी सारी संपदा और निधियाँ सौंपी थी।

इसी तरह वंश गुरुओं के धरती पर अवतरण के साथ ही सद्गुरु कबीर साहब का अंश, उनका आशीर्वाद, उनका अधिकार, वचन अनुसार निःशब्द रूप में ही पीढ़ी दर पीढ़ी और उत्तराधिकार के रूप में उन्हें प्राप्त होता है, उनमें प्रवाहित होता है।

ठीक उसी तरह वंशाचार्य, साहब भी अपने शिष्यों को, भक्तों को, संतों को, दुखी जीवों को उनकी सत्यनिष्ठ हृदय की पुकार पर तीन लोक की संपदा और निधियाँ निःशब्द रूप में सहज ही प्रदान कर देते हैं।

साहब का यह निःशब्द आशीर्वाद हमें प्रसाद, चरणामृत, सत्संग, नाम स्मरण, दर्शन और बंदगी के माध्यम से प्राप्त होता है, जो जीवन के कठिन परिस्थितियों में प्रस्फुटित होकर हमें मुक्ति और सदगति की ओर ले जाते हैं।

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प्रेम का साधक...💐

साहब का भक्त प्रेम का साधक होता हैं, अपने साहब के प्रति पूरी तरह से समर्पित होता हैं। यानी संसार से विरक्त, लेकिन प्रेम में बेसुध। साहब से मिलकर एकमेव हो जाना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है।

कुछ भक्त साहब को पुरुष (नायक) तो कुछ स्त्री (नायिका) के रूप में देखते हैं, और वे प्रेम की लौकिक सीढ़िया चढ़ कर अलौकिक प्रेम तक पहुंचना चाहते हैं। अपने साहब का पल भर का वियोग भी उन्हें तड़पा जाता है। बहुत से संतों ने प्रेम को अथाह माना, जिसका तल मिलता नहीं। उसे प्रेम में मिली पीड़ा से भी इश्क होता है, क्योंकि दर्द भी वही देता है, और वही दवा भी बन जाता है।

अपने साहब की तवज्जो मिल जाए तो भी ठीक, न मिले तो भी उसके प्रेम में कमी नहीं आती। ऐसे में प्रेम का रंग सूफियाना हो जाता है, सुरति जाग उठती है। वह भक्त जिंदगी की डोर अपने साहब, अपने परमात्मा को सौंप देता है, उनके चरणों में जिंदगी रख देता है।

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साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...