रविवार, 8 अप्रैल 2018

लड़कपन के वो दिन...

वो सूटबूट और इत्र लगाए फटफटी लेकर "मुक़द्दर का सिकंदर" फ़िल्म के अमिताभ बच्चन की तरह स्टाइल मारते और गाना गुनगुनाते हुए निकला- "वो मुक़द्दर का सिकंदर जानेमन कहलायेगा।"

कई महीने बाद वो अपनी प्रेमिका से मिलने वाला था। विगत कई रातों से मिलन के ख्वाबों में जागा था। पिताजी तो गर्व से सबको बताते की मेरा सपूत रात रात भर जागकर परीक्षा की तैयारी करता है, पर वो तो किसी महाकाव्य की तरह दो सौ पेज का प्रेम पत्र लिखने में रात बिताया करते। अब तो सरकारी पोस्टमैन भी उसे पहचानने लगा था।


पिताजी की जेब से चुराए और सब्जी वालों से गिड़गिड़ाकर बचाए पैसों से उसकी हीरोगिरी होती थी। एक एक पाई बचाकर बस की टिकिट और पेट्रोल का बंदोबस्त करता था, ताकि राजधानी जाकर अपनी सजनी से मिल सके। किस्मत से लड़की ने भी फटफटी के पीछे की सीट पर बैठने के लिए "हाँ" कर दी थी।

वो सांवली सी थी, खूब बोलती थी। उसकी पटर पटर अच्छी भी लगती थी। कभी किसी सड़क किनारे के खेतों में तो कभी किसी वीरान रास्ते पर वो लोग सुबह से शाम तक बतियाते अपनी मस्ती में अलमस्त रहते। चिट्ठियों और प्रेम पत्रों के वजन से प्यार का हिसाब लगाया जाता। यह समझा जाता कि जिसका लव लेटर जितना भारी उसने उतना ही ज्यादा याद किया। हर पल का हिसाब होता। कहती "बताओ तुम मुझे कितना याद किए? महीने में सिर्फ आठ लेटर से काम नहीं चलेगा।"

सालभर का प्रेमरोग परीक्षा के नतीजों का दौर शुरू होते ही उड़नछू हो जाता। नारियल लिए मंदिर के दरवाजे पर भगवान से पास कराने की मिन्नतें मांगता। प्रार्थना करता कि बस इस बार पास करा दे भगवान, अबकी बार खूब पढूंगा। मुराद पूरी होते ही फिर वही हीरोगिरी...लड़कपन के वो दिन...✍️

साधना काल 💕

सन 2007 की बात है, नवरात्रि चल रही थी। मैने किसी से सुना था की नवरात्रि में साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, साधनाएं सफल होती है। मैने सोचा...