सुख और दुख हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। जैसे चलने के दायां और बायां पैर जरूरी है, काम करने के लिए दायां और बायां हाथ जरूरी है, चबाने के लिए ऊपर और नीचे का जबड़ा जरूरी है।
वैसे ही जीवन की उड़ान के लिए सुख और दुख रूपी दो पंख जरूरी हैं। लेकिन सुख और दुख का ठीक उपयोग हम नहीं कर पाते, उनसे प्रभावित हो जाते हैं, उनमें रस लेने लग जाते हैं, इसीलिए जीवन भर शरीर और इच्छाओ से बंधे ही रह जाते हैं, अपने मुक्त स्वभाव का पता नहीं चलता।
ऐसे में साहब सारे बंधनों को हटाकर हमें अपने निज स्वरूप का बोध कराते हैं, और कहते हैं:-
संतो सो सदगुरु मोहे भावे,
जो आवागमन मिटावे...
कर्म करे और रहे अकर्मी
ऐसी युक्ति बतावे...
कहें कबीर सतगुरु सोई साँचा,
घट में अलख लखावे...
संतो सो सद्गुरु मोहे भावे।।
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