मुक्ति की बातें करते हो। किस किस से मुक्त होंगेे? किस किस से मुक्ति चाहते हो? आसक्ति तो चेतना पर बड़ी गहरी बैठी है। इतनी गहरी बैठी है
कि हम उसे खोज ही नहीं पाते, उसका स्वरूप तक समझ नहीं पाते।
क्या मरने के बाद वाली मुक्ति की चाह है?? ऐसा है तो पहले जी तो ले ठीक से। फिर मरने के बाद का सोचना। वैसे भी किसी ने तुम्हे पकड़कर रखा नहीं है, तुम ही दुनिया को पकड़ रखे हो। छोड़ दो... छोड़ते ही मुक्त हो जाओगे।
मुक्ति बस इत्ती सी बात है....राई के दाने के जितनी। लेकिन मुक्ति पर पूरी गीता रची गई है, अनेकों महाकाव्य रचा गया है।
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