बुधवार, 19 मई 2021

साहब की गूंज...💐

कलशे पर रखा टिमटिमाता दीया धीमी लौ में प्रकाशित हो रहा था। कपूर, अगरबत्तियों की भीनी महक वातावरण में घुल रही थी। वहीं दो फीट की दूरी पर बिछी चटाई में जीवन के दिन कट रहे थे। अमृत कलश के पन्ने पलटते हुए अंधेरी रहस्यमयी रात का एक और पहर गुजरने को था। उलझे से मनोभाव थे, अधजगे नैन, अस्थिर से तन और मन, विचारों का द्वन्द...। रात भर आंखों के कोरों से पानी की बूंदे छलकती रही।

काले काले अजीबोग़रीब चित्र आंखों में अब नहीं आते थे। चौका में बैठे उनका विमल स्वरूप ही अब रह गया जो बंद आंखों के साथ खुले नयनों से भी देख सकता था। कोई तो था जो मुझे आवाज दे रहा था, मेरा नाम लेकर मुझे पुकार रहा था, मुझसे कुछ कहना चाहता था शायद, कुछ बताना चाहता था।

उस रहस्यमयी आवाज की गूंज अब रोज सुनाई पड़ती, मैं अवाक रह जाता, सुन्न पड़ जाता। धीरे धीरे इस बात का अहसास हुआ कि ये तो वही हैं...वही हैं...जिनकी तलाश में कलशे पर रोज दीया जलाया करता, उन्हें फूल अर्पण किया करता। उस मीठी आवाज की गूंज से अब जीवन ओतप्रोत और आह्लादित हो उठा...।

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