खोलबाहरीन काकी की उमर करीब 45 की थी, वो गांव के आंगनबाड़ी में काम करती थी। उसे गम्भीर रोग हो गया, शरीर का ऊपरी हिस्सा ही चलता था, दोनों हाथ और कमर से नीचे का हिस्सा लकवा ग्रस्त हो गया था। तीन शादीशुदा बेटियाँ अपने ससुराल में रहती थी। कई बरस बीत गए, काकी खटिया में पड़ी भूख से कराहती, रोती, और चिल्लाती रहती। उसका सारा दैनिक क्रिया बिस्तर पर ही होता था।
काका ने सारी पूँजी जीवन संगिनी के दवा दारू में लगा दिया। पत्नि का दर्द देखा नही जाता था, वो टुट चुका था। बाहर से संकरी लगाकर रोटी और दवाई के जुगाड़ में दिनभर घर से बाहर रहता।
अक्सर काकी बिलखते हुए उससे कहती- "मुझे मुक्ति दे दो"। एक रात उसने काकी को जगाया, प्यार से उसके सिर को गोद मे उठाया, टपकते आंसूओं और सिसकियों को पोछते और छुपाते हुए कहा- "खोलबाहरीन आज तुम्हें दवाई पिलाना भूल गया, ले दवाई पी ले।" काकी को दवाई पिला दी, और कान में चुपके से कह दिया- "मुक्ति दे दिया तुम्हें खोलबाहरीन, मुक्ति दे दिया...।
सुबह तक पूरे गाँव मे बात फैल गयी थी कि खोलबाहरीन काकी अब न रही। काका और तीनों बेटियाँ खुश थी कि काकी को मुक्ति मिल गई, पर काकी की आत्मा कह रही थी कि उसके परिवार को मुक्ति मिल गई...
(Lekhraj Sahu)
Lekhrajsahebg@gmail.com
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