गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

स्वयं का बोध...💐

कहते हैं जीवन के कर्म इतने गंदे हैं की उस दिव्य सत्ता के नाम का स्मरण करने योग्य भी नही हैं, उनके रूप का दर्शन करने योग्य भी नहीं हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ गलत कर्मों और विचारों में लिप्त है। मन है कि उनके रूप और नाम पर ठहरता ही नही है। उनसे प्रेम हो भी तो कैसे? मन की मलिनता इतनी ज्यादा और गहरी है की इतना भी ज्ञान और सुध नही है कि उस मलिनता को समझ भी पाएं, उसका बोध भी हो। अस्तित्व पर गलत कर्मों, अनुचित विचारों की बेल फैल गयी है। जब उस मलिनता का बोध होगा, तभी तो कोई सुमिरन ध्यान के साबून से उसे धोने का उपाय करें।

साहब का शरण ही वह उपाय है, साहब की वाणी और सत्संग ही वो उपाय है, जिससे अपने गलत कर्मों का बोध होता है, मलिनता का बोध होता है, अस्तित्व पर फैले कुविचारों का बोध होता है।

बोध होते ही जीवन का जागरण होता है, अस्तित्व का जागरण होता है। मानव जीवन के दायित्वों और कर्तव्यों का अहसास होता है। जब मन की मलिनता समाप्त होती है, सुमिरन का तार सुरति से जुड़ता है तब परमात्मा आकर खुद ही हाथ थाम लेते हैं। उनकी ओर एक कदम बढ़ाने से वो खुद की ओर चार कदम बढ़ाते हैं।

साईं से सब होत है, बंदे से कछु नाही...💐


(Lekhraj Sahu)
lekhrajsahebg@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

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