जब बड़ा हुआ, लड़कपन की दहलीज आई, उदासी और हताशा में सारे बुरे कर्म किए। ये कर्म इतने बुरे हैं जिसे बताने में अब शर्म आती है। डरता हूँ कि मेरे बुरे कर्मों पर किसी की नजर न पड़े। और चाहता हूं कि जिस चादर के नीचे अपने कर्मों को छुपा रखा हूँ, वो सदा के लिए छुपा ही रहे। कोई देख न पाए।
लेकिन जिस दिन मैंने साहब को जाना, समझा, जीवन में साहब का दिव्य प्रकाश फैला, अस्तित्व पर उनका अवतरण हुआ, तब से साहब से मुंह छुपाए फिरता हूँ। एक अजीब हीन भावना और अकेलेपन से ग्रसित हूँ। उनके सामने जाने में लाज आती है, थरथरा जाता हूँ। डरता हूँ कि वो मेरी असलियत जानकर मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वो मेरी बुराइयों के साथ मुझे अपना लेंगे?
जब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मैं तो उनकी बंदगी के काबिल ही नहीं हूँ। सैकड़ों बुराइयां हैं मुझमें, लेकिन उनके नाम का खूंटा नितप्रति पकड़े रहना चाहता हूं। क्या पता किसी दिन भाग्य चमक उठे, उनकी दया मिल जाए और वो मुझे अपने चरणों में माथा टेकने का अधिकार दे दें। मेरी सारी भूलें, मेरे सारे पाप क्षमा कर दें।
बस अब साहब से इतनी ही अपेक्षा है कि कम से कम वो अपने नाम स्मरण का अधिकार मुझसे न छीनें। वरना कहीं का नहीं रहूँगा।
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