जैसे साहब को मेरा अहंकार पसंद नहीं, दुर्गुण पसंद नहीं, मेरे अस्तित्व पर फैले बुराइयों की ढेर पसंद नहीं। सुमिरण नहीं करता, साहब के वचनों का पालन नहीं करता। उन्हें यह सब पसंद नहीं।
वैसे ही मुझे उनसे मिलने की लम्बी प्रतीक्षा पसंद नहीं। अब पसंद नहीं है तो नहीं है। इसमें वो क्या करें? और इसमें मैं क्या करूँ? मुझे गोभी की सब्जी पसंद है तो उन्हें मुनगा की।
कहा जाता है कि प्यार में एक निश्चित दूरी दोनों तरफ से होनी चाहिए। दोनों प्रेमियों को एक निश्चित मर्यादा का पालन करना चाहिए। तभी रिश्ते की डोर बनी रहती है, वरना वह डोर समयानुसार टूट जाती है।
जब थोड़े और गहरे उतरते हैं तो पता चलता है कि प्रेम में दोनों प्रेमी अपना सर्वस्व एक दूसरे को सौंप चुके होते हैं। तब न कोई सवाल होता है और न कोई जवाब। इशारों में बातें होती हैं, निःशब्द ही प्रेम को लिया और दिया जाता है। एक दूजे के लिए सिर्फ सर्वस्व समर्पण का भाव जाग उठता है। और तब जाकर भक्ति फलीभूत होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें