गुरु चाहते हैं कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाए। वो बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहते हैं। गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देते हैं, पसीना बहा देते हैं कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय। मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।
यही तो गुरु कि करुणा है, यही तो गुरु का गुरुत्व है और यही तो गुरु कि महिमा है। वो अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहते हैं। इसलिए शिष्य को ठोकते पीटते हैं, संभालते हैं, सब कुछ करते हैं कि कैसे अपने को शिष्य के भीतर उलेड़ दें?
गुरु देते हैं तो छोटी-मोटी चीज नहीं देते। साहब कहते हैं:-
गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान।।
यदि मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव जाग गया तो फिर सारा वेद, सारे पुराण, सारा ज्ञान हृदय के भीतर अपने आप उतर जाएगा।
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