हृदय से निकले ढाई अक्षर के शब्द 'प्रेम' से ही जीवन की सारी बात बनती है। साहब के प्रति प्रेम से ही साधना और भक्ति के बीज शुष्क मानव जीवन में पोषित और पल्लवित होता है। उनको पाने की इतनी उत्कंठा, ललक और बेचैनी हो जाए कि कुछ न सूझे, वैराग्य हो जाए, विरह भाव हो जाए। प्रेम इतना गहरा हो कि वही प्रेम और विरह परमात्मा का रूप हो जाए।
तभी उस भाव में ध्यान, उनमुनि और समाधि के पुष्प खिलते हैं। तब साहब का वह शिष्य पूरे संसार से प्रेम करता है, संसार के प्रत्येक जीव और घटनाओं में साहब की मौजूदगी का अहसास करता है। जीवन का सारा अहंकार, सारा द्वेष, सारी मलिनता दूर हो जाती। स्वयं में अहोभाव जागने लगता है, इसी अहोभाव से वह संसार को देखता है। प्रेम और विरह की पराकाष्ठा साहब के शब्दों में-
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव ।
लोही सींची तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव।।
साहब का प्रेम और विरह इतना गहरा है कि भाव समझ में आते ही भक्त रो उठता है।
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