गुरु मिलना तो सहज सुलभ है, पर शिष्य बनना, अपने में शिष्यत्व धारण करना अत्यंत कठिन है। जिस दिन शिष्यत्व के गुण विकसित होते हैं, गुरु का लाभ उसी क्षण मिलना शुरू हो जाता है। शिष्य का पहला और अंतिम लक्ष्य है गुरु में लीन हो जाना। गुरु में लीन होने पर स्वयं के विचार, स्वयं की भावनाएं, काम, क्रोध, लोभ सब विलीन हो जाते हैं। गुरु की आज्ञा ही सर्वोपरि हो जाती है। उसमें न विचार होता है, न तर्क।
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