प्रेम का आनन्द अवर्णीय है। जिसकी तुलना संसार के किसी अन्य आनन्द से नहीं किया जा सकता। साहब के प्रेम के आनन्द में शिष्य वैकुण्ठ और मोक्ष को भी तुच्छ मानता है। प्रेम की इसी पराकाष्ठा की अनुभूति सदगुरू कबीर साहब को धर्मदास साहब और आमीन माता में हुई।
साहब कहते हैं:-
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधु संग में, सो बैकुण्ठ न होय।
आनन्द, संतोष, प्रफुल्लता, स्निग्धता और आत्म-भाव की दिव्य अनुभूतियाँ वहीं प्राप्त हो सकती हैं, जहाँ निर्मल और निःस्वार्थ प्रेम हो। प्रेम मानव-जीवन की एक महान उपलब्धि है। प्रेम विहीन जीवन शुष्क मरुस्थल के समान होता है।
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