बुधवार, 12 जनवरी 2022

साहब के प्रति थोड़े भाव हैं...💐

मेरे करीब के लोग कहते हैं जो दिल में आता है, लिख देते हो। पूछते हैं- "साहब से डर नहीं लगता क्या? साहब भी तुम्हें पढ़ते हैं, तुम्हारी पोस्ट पर कमेंट करते हैं।" पर मुझे साहब से भला क्यों डर लगेगा? मेरे अंदर उनके प्रति थोड़ा सा प्रेम है, थोड़े भाव हैं, कोमल भावनाएँ हैं, जो उन्हें लिख दिया करता हूँ।

मुझे उनसे डर नहीं लगता। हाँ, लेकिन मुझे शर्म जरूर आती है, लाज जरूर आती है कि उन्होंने जो कहा उस तरीके से मैं उनको जी नहीं सका। इसलिए उनकी बंदगी करने नहीं जाता। उनसे आंख मिलाकर उनके सामने खड़े नहीं हो सकता, उनके बगल खड़े होकर उनके साथ सेल्फी नहीं ले सकता।

अगर साहब से डरूँ तो उनसे सत्यलोक जाने का मार्ग कैसे पूछ पाऊंगा? उनसे कैसे विनती कर सकूंगा की जिस तरह रानी इन्द्रमती को साहब कबीर ने जीते जी सत्यलोक का दर्शन करवाया, उसी तरह मुझे भी सत्यलोक का दर्शन करवाएँ। अगर उनसे डरूँ तो उनके मार्ग में चलते हुए आने वाली बाधाओं से निकलने का उपाय कैसे और किससे पूछूँगा?

बेशक, मेरे लेख में उनकी आलोचना भी पाएंगे, लेकिन उसके पीछे मेरा प्रेम ही होता है। क्या वो ये सब नहीं समझते होंगे? वो सब समझते हैं, उनको मेरे पल पल की खबर है। उनकी प्रतीक्षा में जीवन खाक हो गया, क्या वो नहीं देखते होंगे? क्या वो मेरे शब्दों में छिपे उनके प्रति कोमल भावनाओं को महसूस नहीं करते होंगे?

और जहां तक उनकी मर्यादा की बात है, तो मैं मर्यादा का पालन करता हूँ। लेकिन मर्यादा में रहकर अपने हर भावों को व्यक्त करने में मुझे दिक्कत होती है। जिस तरह धर्मनि आमिन और साहब कबीर के सम्बन्धों को समझ सका हूँ उसके अनुसार धर्मनि आमिन अपनी हर समस्या को, हर पीड़ा को, साहब के प्रति प्रेम को दिल खोलकर और मर्यादा लांघकर उनके चरणों में अर्पित कर किया। तो मैं साहब से अपनी बात कहने में भला क्यों डरूँ?

बल्कि मैं तो अनेकों बार जानबूझकर अमर्यादित होकर लिखता हूँ ताकि वो कमेंट करके मुझे डांटे, मेरी कमजोरियों से मुझे अवगत कराएं, मुझे तराशें, मेरा जीवन सवारें। मैं कच्ची मिट्टी का घड़ा हूँ, वो मुझे अपने अनुसार जैसा चाहें वैसा ढालें, मैंने तो उनके चरणों में जीवन बिछा दी है।

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