अपने घर वालों को अपनी सेहत के बारे में अब तक ज्यादा कुछ नहीं बताया था। लेकिन कब तक उन्हें अंधेरे में रखूँ, कभी न कभी सच्चाई उनके सामने आ ही जाएगी। दर्द को एक्सप्रेस न करते हुए एक लाइन में कहूँ तो "जिंदगी ज्यादा दिन नहीं चलेगी।"
आज कह रही थी कि चलो साहब के पास, उनसे निवेदन करेंगे, दर्शन बंदगी करेंगे, पान परवाना मांगेंगे, तुम ठीक हो जाओगे, साहब जरूर कृपा करेंगे। लेकिन उन्हें कैसे समझाऊँ कि साहब से मेरा "छत्तीस का आंकड़ा है"।
उनकी दया, उनकी कृपा तो हर पल मुझ पर बरसती ही रहती है। तभी तो जी पा रहा हूँ, तभी तो सांसे चल रही है। वो तो मेरे आसपास सदैव रहते ही हैं, मेरी साँसों में घुले हुए हैं। वो तो घर बैठे ही दिखाई दे जाते हैं, सुनाई पड़ जाते हैं। लेकिन माँ तो माँ होती है, उसे मेरी पीड़ा देखी नहीं जाती।
मेरी ख्वाहिश तो बस इतनी सी है कि जब देह त्यागूँ तो नजरों के सामने साहब हों, और देह त्यागने के पश्चात उनके करकमलों से मेरा चलावा चौका हो।
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