साहब के मंच पर कोई नेता बैठता है तो मुझे बड़ी चिढ़ होती है, झल्लाहट होती है। लोग लाखों की तादात में देश के कोने कोने से साहब के दर्शन बंदगी करने आते हैं, जिसमें बरसों की प्रतीक्षा होती है, जन्मों की प्रतीक्षा होती है। हम अपने साहब को जीभरकर निहार भी नहीं पाते, उनके चरणों तक पहुंच भी नहीं पाते, उनके हाथ से पान परवाना भी नहीं ले पाते, और ये महोदय लोग साहब के समकक्ष मंच पर बैठते हैं, हम इनका फूलों की हार से स्वागत करते हैं, उनकी बकबक सुनते हैं।
क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, इसका निर्णय करने वाला मैं कोई नहीं होता। लेकिन मुझे ये पसंद नहीं। चाउर वाला बाबा तो ठीक ही थे, लेकिन दारू, अंडा वाला काका या उसकी टीम के लोग साहब के बगल बैठे मुझसे सहा नहीं जाएगा।
कुछ लोग कहते हैं कि नेताओं के आने से फंड मिलता है, कबीरपंथ के विकास को प्रगति मिलती है। लेकिन मुझे दामाखेड़ा में कोई विकास या सकारात्मक बदलाव नजर नहीं आता। बाकी भगवान ही मालिक है।
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