कुछ समय बाद जो साधक हैं वो या तो गुरु बन जाते हैं अथवा किसी आश्रम, मठ आदि खोलकर बैठ जाते हैं, चेला बनाकर उनसे अपनी सेवा करवाने लगते हैं। फिर शुरू होता है दौलत, पद प्रतिष्ठा पाने की अंतहीन दौर, जहां जाकर वो साधक पथभ्रष्ट हो जाता है। मुझे समझ में ये बात नहीं आती थी कि साधक का सफर गुरूवाई करने में, चेला बनाने, मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा अर्जित करने और मठ मंदिर बनाने तक में क्यों समाप्त हो जाती है। साधक की साधना क्यों दिग्भ्रमित और पथभ्रष्ट हो जाती है।
आज भी मेरी धारणा बदली नहीं है। माना धन अर्जन में बुराई नहीं है, मठ आश्रम बनाने में और चेला जोड़ने में भी बुराई नहीं है, लेकिन जिस लक्ष्य को लेकर साधक निकला था वो लक्ष्य कहीं थोड़ी दूर जाकर कहीं खो जाता है। जबकि साधक का लक्ष्य तो समेटना नहीं बाँटना है, साधक का लक्ष्य तो साहब की अनुभूति पाना है, उनसे एकाकार करना है, तथा उनके सहारे सहारे आत्म कल्याण की प्राप्ति करना है।
आध्यात्मिक व्यवस्था अब हर स्तर पर बदलाव चाहती है। बदलाव के इस दौर में गुरु-शिष्य के रिश्ते, उनकी मर्यादा, संतों की छवि और प्राचीन परंपरा को पुनर्स्थापित करना होगा, पुनर्निरुपित करना होगा। लेकिन बहुत विचार के बाद मन यही कहता है अब ये हो नहीं पाएगा। इसलिए मुझे लगता है कि साहब और वंश गुरुओं के अलावा किसी और को देखने सुनने, गुरु बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें