उस नवयुवक के मन में साहब को जानने की गहरी प्यास थी। उसने कुछ महीने संतो की शरण में बिताए, सत्संग किया, ध्यान किया, साहब को याद किया, साहब के नाम का रस चखा। उसे संतों की संगत रास आने लगी। सफेद लिबास में ओजमय, शांति और संतुष्टि से दमकता संतों का चेहरा उसे आकर्षक लगता।
संतजन अक्सर कहा करते थे जगत में अपना कुछ भी नहीं है-
"मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागत है मोर।।"
एक दिन उस नवयुवक को भी अहसास हुआ कि उसके जीवन में जो कुछ भी है, वो सबकुछ परमात्मा का है, साहब का है, जीव जगत का है। उसे तन, मन, धन और जीवन साहब ने जनकल्याण के लिए दिया है।
एक दिन सड़क किनारे एक मैले कुचैले वस्त्रों से लिपटी, छोटे से बच्चे को लिए महिला ने भीख मांगने के उद्देश्य से उसकी ओर हाथ बढ़ाया। वो नवयुवक उसे वहीं रुकने को कहकर पास के एटीएम गया, अठारह हजार रुपए की सारी जमा पूंजी निकाल लाया और उस महिला के हाथ में थमाकर आगे बढ़ गया।
संतों को जब ये बात पता चली तो वो नवयुवक पर आग बबूला हो गए, खूब खरी खोटी सुनाई। नवयुवक ने कहा- "आपका ही दिया ज्ञान है, जिसे जी लिया।"
आखिर उन संतों ने उस नवयुवक को क्यों डाँटा होगा? नवयुवक से वो संत क्यों खुश नहीं हुए? नवयुवक तो साहब की वाणी को जीने की कोशिश कर रहा था।
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