जी तो चाहता है मैं भी इसी जन्म में उनके साथ एक सेल्फी ले लूं, लेकिन हिम्मत नहीं होती। जब भी उनकी बंदगी को जाता हूँ, खुद के भीतर ध्यान जाता है। भीतर नजर जाते ही जन्मों का मैल नजर आता है, अस्तित्व पर फैली गंदगी नजर आती है। शर्म से आंखे झुक जाती है, उनके सामने आने में ही झिझक होती है, चेहरा छुपा लेता हूँ, वापिस लौट आता हूँ। बरसों बीत गए लेकिन मन का मैल आज भी ज्यों का त्यों है।
अगर किसी दिन पूछ लिए कि दीक्षा देते समय जो नाम दान दिया था उसका क्या हुआ? सुमिरण की गाड़ी कहाँ तक आगे पहुँची? तो मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा। दोस्तों, मैं साहब से नजरें मिलाकर उनके सामने खड़े नहीं हो सकता। उनकी कोई भी बात, कोई भी वाणी उनके कहे अनुरूप जी नहीं सका।
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