शनिवार, 1 दिसंबर 2018

साहब के साथ सेल्फी...💐

उस महात्मा ने हाथ पकड़कर साहब के रास्ते पर चलना सिखाया। साहब का परिचय कराया, उनके होने का बोध कराया, उनकी वाणियों को जीना सिखाया। वो कहा करते थे साहब तक पहुंचने की अनेकों विधियाँ हैं, लेकिन सबसे सरल विधि साँसों के माध्यम से उनके नाम का सतत स्मरण है, वो भी बिना तारी टूटे, बिना एक भी स्वांस वृथा गवाएं। एक ही मौका ही, एक ही जीवन है। साहब को नहीं जी सके तो क्या जिए?

कुछ दिनों के प्रयास से नाम का स्मरण भीतर तक समाने लगा। अब तो पैदल चलने के पदचाप में भी "सत्यनाम" की ध्वनि सुनाई देने लगी। कमरे की घड़ी भी टिक-टिक में "सत्यनाम" का स्मरण करने लगी। जो भी व्यक्ति सामने आता, उसके चेहरे में भी "साहब का रूप" दिखाई देने लगा। भाव विह्वल उनके चरण पकड़ लेता। धीरे धीरे उसकी दिनचर्या "सत्यनाम" और "साहब" के रंगो से सराबोर हो गया। अब तो वो पूरी तरह साहब के आगोश में समाता ही चला गया।

कुछ समय बाद तो उसे लोगों की बातें सुनाई देना बंद हो गई, संसार के दृश्य दिखाई देना भी बंद हो गए। न तो खाने पीने का होश, न ही सोने जागने का ख्याल। उसका सबकुछ खो गया, वो बदहवास साहब को पुकारता ही रहा। शरीर कांटे की तरह सूख चुका था, आंखों से आंसू रोके नहीं रुकते थे। उसने अपनी साँसे और जिंदगी फूँक डाली, उसको अब साहब के अलावा जीवन से कुछ और नहीं चाहिए था।

आखिरकार बड़ी प्रतीक्षा के बाद उसे साहब मिल ही गए, और साहब के दर्शन पाकर वो फुट फुटकर रोया, रोता ही गया। वो सबको पकड़ पकड़कर साहब के बारे में बताने की कोशिश करता, कभी रोता, तो कभी झूमता। उसके हृदय में साहब के लिए पागलपन और जुनून उमड़ पड़ता। साहब ने उसके जीवन की डोर थाम ली, और उसने भी साहब के साथ सेल्फी ले ली।

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