न मैं नारियल भेंट करना जानता, न साहब की बंदगी करना जानता, न ही संतों का आवभगत जानता। बस टूटी फूटी, विकारों से भरे मन से साहब की बंदगी कर ली और प्रसाद ग्रहण कर लिया। लेकिन मेरी बंदगी साहब तक जरूर पहुंची होगी, वो भी मेरा ध्यान किए होंगे, मुझे निहारे होंगे।
हर कबीरपंथी का सपना होता है कि उसके जीते जी घर में कम से कम एक बार साहब का आगमन हो, साहब की भेंट बंदगी हो, साहब के करकमलों से चौका हो। ऐसा ही मेरा भी सपना है, लेकिन मैले मन से साहब को निवेदन करने में संकोच होता है।
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