वो मजदूर रोज ईंटे जोड़ने का काम करता है, लोगों के घर बनाने का काम करता है, लेकिन उसका खुद का घर नहीं है। जिस घर को बनाता है उसी घर में शरणार्थी के रूप में पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहता है।
जब भी वो घर बनाता है सत्यनाम के सुमिरण से ईंटें उठाता है, सत्यनाम के सुमिरण से ईंटे जोड़ता है, सत्यनाम के सुमिरण से दिनभर जीतोड़ मेहनत करता है। थोड़ी बहुत जो भी मजदूरी उसे मिलती है, उसे साहब की इक्छा मानकर स्वीकार कर लेता है। साहब से वह कोई अपेक्षा नहीं रखता, बस वो साहब के नाम का खूंटा पकड़े रहना चाहता है।
जब भी कोई बच्चा बीमार पड़ता है, साहब का प्रसाद और पान परवाना खिलाता है, सत्यनाम की थपकी देकर उन्हें सुलाता है। उसके जीवन में अनेकों बाधाएं है, अनेकों समस्याएं हैं। लेकिन वो कभी साहब से शिकायत नहीं करता है, परिस्थितियों को रोता नहीं है।
जिस घर की हर ईंटे साहब के नाम से रखी गई हों, उस घर में कितनी दिव्यता होगी कल्पना करना भी मुश्किल है। उस घर में रहने वाले परिवार का जीवन भी उस मजदूर की भक्ति और साहब के नाम से सुवासित हो उठता है।
न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो हर पल साहब को जीते हैं, हर पल साहब के लिए मरते हैं। कोई चपरासी होता है, कोई शिक्षक होता है, कोई कम्प्यूटर आपरेटर होता है, कोई किसान होता है, कोई बड़ा अधिकारी होता है तो कोई व्यापारी होता है जो अपने कर्म क्षेत्र में साहब को जीते हैं।
अपने आसपास ऐसे अनेकों जीवन देखता हूँ, जो साहब की दिव्यता से आलोकित है, सुवासित है। उनका जीवन मुझे प्रेरित करता है, साहब की ओर कुछ और कदम बढाने का हौसला देता है।
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