प्यासे प्राण जाय क्यों न अबहिं, और नीर नहीं भाई।।
दो दल आन जुरै जब सम्मुख, शूरा लेत लड़ाई।
टूक टूक होय गिरे धरणी पै, खेत छाड़ि नहिं जाई।।"
आँखे मूंदे, पद्मासन में बैठे, मन को विचार शून्य करने की कोशिशें होती रही, बारी बारी से नाक-कान बंदकर प्राणायाम और ध्यान की कोशिशें होती रही, संध्या पाठ के अक्षरों को अर्थ देने की कोशिशें होती रही। ग्रंथो और शास्त्रों के खाक छानते रहे, विद्वानों के चरण पखारते रहे। यहां वहां "सार शब्द" नामक चमत्कारी बूटी ढूंढ़ते रहे।
मंदिरों के चक्कर लगाए, बाबाओं के भभूत खाए, बरसों बीत गए, कुछ नहीं हुआ, भगवान नहीं दिखे, "सार शब्द" नहीं मिला।
अब जिंदगी ढलान पर आ चुकी है, कमर झुक गई है, चेहरे पर झुर्रियां नजर आती है। लेकिन उनकी खोज आज भी बदस्तूर जारी है। शब्दों के ऑपरेशन, शब्दों के पोस्टमार्टम और ज्ञान का पारख अभी भी जारी है। पता नहीं कब पारख होगा, कब सार शब्द मिलेगा, कब मोक्ष मिलेगा, शब्दों को परखते हुए और कितनी जिंदगी गुजारेगा?
किन उलझनों में उलझा है? क्यों बीच पथ पर ठहर गया है? किसका प्रतीक्षा है, किस ओर उम्मीदों से निहार रहा है? तू कल भी अकेले चला था और आज भी अकेले ही उस मार्ग पर चलना है। क्यों किसी साथ की अपेक्षा करता है? साहब के अलावा कोई नहीं आएगा राह दिखाने, कोई नहीं आएगा बांह थामने। तू जरा हिम्मत तो कर, तू जरा दृढ़ता पूर्वक कदम तो बढ़ा।
सांसे उखड़ती तो उखड़ने दो, आंसू बहते हैं तो बहने दो, कुछ टुटता है तो टूटने दो, कोई छूटता है तो छूटने दो। बस थोड़ी दूर और, हिम्मत तो कर, बस कुछ कदम और चल। तू उनकी उंगली पकड़े आगे बढ़ता चल।
रास्ता बड़ा दुर्गम है, रास्ते में बीहड़ है, घुप्प अंधेरा है। लेकिन इस अंधियारे की भी एक दिन सुबह होगी, उजाला होगा, रोशनी होगी, भोर होगा। वो मिलेंगे, जरूर मिलेंगे। और जब वो मिलेंगे तब जीभरकर उनकी गोद में सिर रखकर रो लेना, सारी शिकायतें कह सुनाना..💐
कहते हैं किसी से कुछ मत कहो। जो हो रहा है उसे होने दो, जो दिख रहा है उसे दिखने दो, जो सुनाई दे रहा है उसे भी इग्नोर करो और सहजता से आगे बढ़ जाओ। जहां रुके, रूककर आनंदित हुए, भावुक हुए तो फिर से बंध जाओगे।
अतीत में क्या हुआ, भविष्य में क्या होगा और वर्तमान में क्या घटित हो रहा है, इन बातों में मत उलझो। पंख फैलाकर बस अपनी उड़ान जारी रखो। लेकिन कोई तो बताए कहाँ तक उड़ान भरी जाए? उसका तो कोई ओर समझ नहीं आता, कोई छोर समझ नहीं आता। करें तो करें क्या? किससे पूछें, कौन बताए, कौन बांह पकड़कर पार लगाए?
कब तक इस विकट परिस्थिति में पड़े रहना होगा, कब तक सांसे संभाले रखनी होगी? ये तो कंट्रोल से अब बाहर जा रहा है, सबकुछ डांवाडोल सा लग रहा है। इस विचित्र स्थिति में तो जीवन ही दाँव पर लग गया है।
इतनी बड़ी बात हो जाए फिर कैसे सहज रहा जाए, कैसे सहजता से जीवन जीया जाए कैसे अपने को संभाला जाए? कोई मार्ग नहीं सूझता।
बरसों बाद उससे अचानक ही सामना हो गया। सामना होते ही उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। रो रोकर बार बार यही पूछती है "मुझे क्यों छोड़कर चले गए?" "मेरी गलती क्या थी?" दिल का सारा दर्द, सारी पीड़ा वो एक सांस में कह देना चाहती है। उसके पास मुझसे कहने के लिए सिर्फ शिकायतें ही शिकायतें हैं।
उसे कैसे बताऊँ अपने अंतर्मन की पीड़ा, उसे कैसे दिखाऊँ राख हो चुके सपने और जज़्बात? विछोह की व्याकुलता से मेरा भी जीवन पलता है, मेरे भी आंसू ढलते हैं। तुम तो शिकायत कर सकती है मुझसे, पर मैं किसे अपना दर्द बताऊं? किसके कंधे पर माथा रखकर रोऊँ?
जिस विरह को तुम जीती हो, उसी विरह में जलकर मेरा जीवन भी राख हो चुका है, जीवन ठूंठ बनकर खड़ा है, ख्वाहिशों के पंख कतर दिए गये हैं। सारी कोमल भावनाएं चीख चीखकर हजारों प्रश्न करती हैं। मेरे पास कोई जवाब नहीं है, और मैं निरुत्तर हूँ।
लेकिन अब और नहीं। अब बिल्कुल भी पलटकर पीछे नहीं देखना है। जो छूट गया सो छूट गया, जो जल गया सो जल गया। अतीत की यादों को फिर से दोहराना नहीं है, उसे हवा नहीं देना है। शायद हम कभी न मिल पाएं, शायद अब कभी बात न कर पाएं। नियति मुझे सहर्ष स्वीकार है। गुडबाय दोस्त...💐
वर्तमान में निष्पक्ष होकर राजनीतिक विषयों पर अपनी राय सोशल मीडिया में व्यक्त करना किसी चुनौती से कम नहीं है। लोग डंडा लेकर घर पहुँच जाते हैं। सरकारी आदमी तो बेचारा दबा कुचला, डरा घबराया सा रहता है और अक्सर इन विषयों पर अपने विचार रात को खाना खाते समय टीवी खोलकर केवल अपनी बीबी से व्यक्त कर पाता है, वो भी बेहद धीमी आवाज में।
उस पर पाबंदी होती है, सरकारी व्यवस्थाओं पर कुछ कहने की मनाही होती है। सरकारी नौकर होकर सरकार की ही नीतियों या राजनीतिक मामलों पर कुठाराघात नहीं कर सकता, जिस डाली पर बैठा है उसी डाली को नहीं काट सकता। अरे भाई नौकरी जाने और पापी पेट का सवाल है।
वो तो बस सबके विचार पढ़ता है, चटकारे लेता है। मन ही मन चुनिंदा नेताओं को गालियाँ देकर अपनी भड़ास निकालता है, बड़े साहब से रोज डांट खाता है और सुबह दस से शाम छः बजे की ड्यूटी बजाता है।
घर में चौका का आयोजन होने जा रहा है। महंत साहब ने परिवार के सभी सदस्यों को घर का सारा काम छोड़कर, काम की जिम्मेदारी दूसरे पारिवारिक सदस्यों को सौंपकर चौका स्थल में बैठने का आदेश दिया है। थोड़ी देर में चौका शुरू हुआ।
चौका शुरू हुए पांच मिनट नहीं बीता था कि छोटी बहू की गोद में बैठा बच्चा रोने लगा, छोटी बहू उसे लेकर चौका स्थल से उठकर चली गईं। घर के मुखिया को खाना बनाने वाले ने ये देखने के लिए बुला लिया कि सब्जी में कितने आलू डालना है। तभी बड़ी बहू के मायके की तरफ के लोग आ धमके, वो भी चौका स्थल से उठकर आवभगत में लग गई। घर का बड़ा बेटा भी किराने की सामान ढोने के लिए बुला लिया जाता है, और छोटा बेटा चौका स्थल से उठकर रेडमी के नए मोबाइल से वीडियो बनाने में लग जाता है।
अब चौका का सारा भार अकेले महंत साहब के कंधे पर आ जाता है। वहीं दूर बैठे कुछ महाज्ञानी लोग चौका पद्धति में गलतियां निकालने में व्यस्त हो जाते हैं, नारियल कितने हैं, कलशे में बातियाँ कितनी है, महंत साहब किस दिशा की ओर बैठे हैं आदि। आखिरकार महंत साहब, दीवान साहब और सहयोगियों ने चौका सम्पन्न किया। लोग प्रसाद लिए, जीभरकर खाना खाएं और चले गए।
एक दृश्य ऐसा भी...💐
सांसारिक जीवन मे संतों को देखने का तरीका बड़ा अजीब है। लोग संत तो खोजते हैं, लेकिन उनकी खोज किसी पूर्वाग्रह से प्रभावित होता है। किसी खास रंग के वस्त्र, चेहरे पर सफेद दाढ़ी, गले में किसी खास किस्म की धातु अथवा चंदन की माला, पैरों में खड़ाऊ, हाथ में कमंडल की छवि पारंपरिक संतों को परिभाषित करती है।
वर्तमान में सामाजिक और वैचारिक बदलाओं के दौर में जहां संतों की प्रतिष्ठा घटी है, वहीं समाज में शांति के व्यक्तिगत व पारस्परिक उपायों की खोज भी बढ़ी है।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में अनेकों पुरानी धार्मिक परंपराएं तोड़ी जा रही है और संतों के नए रूप, संतों के नए स्वरूप, उनको देखने का नजरिए में नित नूतन बदलाव हो रहे हैं। समय के अनुरूप अब संतों को पहचानने का तरीका भी बदल चुका है। जिसे बेहद सरलतम शब्दों में साहब की वाणी से समझा जा सकता है:-
दया गरीबी बंदगी समता शील उपकार।
इतने लक्षण साधू के कहे कबीर विचार।।
जब रिश्तों को दिल की जगह दिमाग से निभाया जाए, जब बरसों के आत्मिक और नाजुक संबंधों का हिसाब अन्य लोगों द्वारा मांगा जाए, जब रिश्तों की गर्माहट को चार लोगों द्वारा तर्कों के थर्मामीटर में मापा जाए, तो सचेत हो जाना आवश्यक है। यह समझ लेना आवश्यक है कि अब रिश्ते टूटने के कगार पर है, डोर की परतें उखड़ने को है।
रिश्ते, रिश्तेदार और जिंदगी न जाने कितने तजुर्बे देती है। कभी हँसाती है तो कभी रुलाती है। कभी कभी तो इंसान तो ऐसे तोड़ देती है कि ताउम्र के लिए जिंदगी पर ग्रहण लग जाता है। उसकी छाप इंसान के मिट्टी में दफ़न होने तक पीछा नहीं छोड़ती। आज फिर एक रिश्ते को बाजार में तौला जाएगा, दाम लगाया जाएगा।
तन्हाई केवल एक एहसास नहीं, बल्कि एक ऐसी गहरी दुनिया है जहाँ कोई और नहीं, बस आप और आपकी सोच होती है। यह एक खाली कमरा नहीं, बल्कि एक भरी हुई क...